जीने
को मुझमें
मेरा होना जरूरी तो नहीं
बस यही है नियति मेरी
कहना है उनका …………
जानने को मुझमें
मेरा कुछ बचा ही नहीं
सब जानते हैं मेरे बारे में
कहना है उनका ………
क्योंकि
स्त्री हूँ मैं
और स्त्री होना मापदंड है
उसके ना होने का
उसके खुद को ना जानने का
उसके खुद को प्रमाणित ना करने का
वरना उनकी पितृसत्तात्मक सत्ता के
कमज़ोर होने का खौफ़
कहीं उनके चेहरों पर ना उतर आये
और हो जायें उनके आदमकद अक्स वस्त्रहीन
बस सिर्फ़ इसलिये
कहीं मंत्र तंत्र
तो कहीं जादू टोना
तो कहीं डर
तो कहीं दहशत का साम्राज्य बोना ही
उनकी नियति बन गयी है
और कठपुतली की डोर
अपने हाथ मे पकडे
दिन में अट्टहास करते मुखौटे
सांझ ढले ही
रौद्र रूप धारण कर
शिकार पर निकल पडते हैं
फिर नही होती उनकी निगाह में
कोई माँ , बहन या बेटी
बस होती है देह एक स्त्री की
जहाँ निर्लज्जता , संवेदनहीनता और वीभत्सता का
पराकाष्ठा को पार करता
तांडव देख शिव भी शर्मिंदा हो जाते हैं
और कह उठते हैं
बस और नहीं
बस और नहीं
स्त्री ………तेरा ये रूप अब और नहीं
जान खुद को
पहचान खुद को
बन मील का पत्थर
दे एक मंज़िल स्वंय को
जहां फ़हरा सके झंडा तू भी अपने होने का
जहाँ कोई कह ना सके
सब जानते हैं तेरे बारे मे
तुझे अब अपने बारे मे जानने की जरूरत नहीं
या जहाँ कोई कह ना सके
तेरे होने के लिये
तेरा तुझमें होना जरूरी नहीं
बल्कि कहा जाये
हाँ तू है तो है ये सृष्टि
क्योंकि
तू है स्त्री……………
और स्त्री होना अभिशाप नहीं ……………कर प्रमाणित अब !!!
मेरा होना जरूरी तो नहीं
बस यही है नियति मेरी
कहना है उनका …………
जानने को मुझमें
मेरा कुछ बचा ही नहीं
सब जानते हैं मेरे बारे में
कहना है उनका ………
क्योंकि
स्त्री हूँ मैं
और स्त्री होना मापदंड है
उसके ना होने का
उसके खुद को ना जानने का
उसके खुद को प्रमाणित ना करने का
वरना उनकी पितृसत्तात्मक सत्ता के
कमज़ोर होने का खौफ़
कहीं उनके चेहरों पर ना उतर आये
और हो जायें उनके आदमकद अक्स वस्त्रहीन
बस सिर्फ़ इसलिये
कहीं मंत्र तंत्र
तो कहीं जादू टोना
तो कहीं डर
तो कहीं दहशत का साम्राज्य बोना ही
उनकी नियति बन गयी है
और कठपुतली की डोर
अपने हाथ मे पकडे
दिन में अट्टहास करते मुखौटे
सांझ ढले ही
रौद्र रूप धारण कर
शिकार पर निकल पडते हैं
फिर नही होती उनकी निगाह में
कोई माँ , बहन या बेटी
बस होती है देह एक स्त्री की
जहाँ निर्लज्जता , संवेदनहीनता और वीभत्सता का
पराकाष्ठा को पार करता
तांडव देख शिव भी शर्मिंदा हो जाते हैं
और कह उठते हैं
बस और नहीं
बस और नहीं
स्त्री ………तेरा ये रूप अब और नहीं
जान खुद को
पहचान खुद को
बन मील का पत्थर
दे एक मंज़िल स्वंय को
जहां फ़हरा सके झंडा तू भी अपने होने का
जहाँ कोई कह ना सके
सब जानते हैं तेरे बारे मे
तुझे अब अपने बारे मे जानने की जरूरत नहीं
या जहाँ कोई कह ना सके
तेरे होने के लिये
तेरा तुझमें होना जरूरी नहीं
बल्कि कहा जाये
हाँ तू है तो है ये सृष्टि
क्योंकि
तू है स्त्री……………
और स्त्री होना अभिशाप नहीं ……………कर प्रमाणित अब !!!
-वन्दना गुप्ता,
दिल्ली
sarthak abhivaykti....