केना तोरा भेजबो
दिल्ली गे,
दिल्ली गे,
राकस घुमे छै, पिशाच घुमे छै,
रस्ता काटे छै
करिया बिल्ली गे,
करिया बिल्ली गे,
तोरा केना के भेजबो
दिल्ली गे....
दिल्ली गे....
...
हे बहिन,
पढ़वे तू बडका यूनिवर्सिटी में गे,
मास्टर पिशाच छै, डिग्री पिशाच छै,
झोंक देतो तोरा भट्ठी में गे,
..हे बहिन,
कमैबे तू कंपनी में गे,
जमाना खराब छै, नै कोई जवाब छै,
रहि जैबे बेचैनी में गे,
केना के भेजबो कंपनी में गे..
....
हे बहिन,
ब्याह के बाद, ससुरारी में गे,
दहेज भेजनाई छै, तोरो भेजनाई छै,
सास भी नै मिलतौ नारी गे,
तोरा केना के भेजबो ससुरारी गे.
-सुब्रत गौतम ‘मुसाफिर’
very fine poem and it display the reality of modern security towards women living in the metro city.....
this is really the sound of soul of the parents who willing to give higher education and blissful life to their girl child.. but our security system is too weak to look after the day to day crime again
st women.....
bahin ke aagu badhai se nai roku, zamana badli gelaik..okra me aatm vishwas bharu, swaraksha karwak himmat bharu, okra kahiyok o duirga saraswati lakshmi chhaith..
kavita badd sundar ..swabhawik chitran....