मुख्य मार्ग पर टंगे बोर्ड पर नजर गई. एड्स
(पंजीकृत). एड्स शब्द को देखते ही तरह-तरह के विचार मन में आने लगे. सोचा, ऑफिस
में ही चलकर कुछ जानकारी लूं. एच.आई.वी., एड्स, लाइलाज बीमारी. रोज-रोज बढते मरीज.
मरते लोग...
अंदर
पहुँचते ही काउंटर पर बैठे एक सज्जन ने कहा, बैठिए. हम पंजीकृत फर्म हैं, बैंकिंग,
लोन, फिनान्स, इंश्योरेंस, एक्सीडेंट क्लेम्स, इलाज, इम्प्लाइमेंट्स इत्यादि सार्वजनिक
महत्त्व के कामों में एड्स (सेवा एवं सहायता) पहुंचाते हैं. जरूरत पड़ने पर एड्स
(प्रचार-प्रसार-विज्ञापन) भी करते हैं. बदले में कुछ प्रतिशत सेवा-शुल्क लेते हैं.
इसके लिए हमने एक पंजीकृत फर्म खोल ली है और हमारा मुख्यालय दिल्ली में है. हमारी
शाखाओं और ग्राहकों का रोज-ब-रोज विस्तार हो रहा है ठीक ‘एड्स’ की तरह. बहुत जल्दी हम पूरे
देश-दुनियां में छा जायेंगे. अंदर-बाहर. मैं इसका मैनेजर हूँ-कुमार कौशल, बी-कॉम.,
एम.बी.ए. (एड्स).
सर, बैठिए न, आप बैठे नहीं ?
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तो आप डॉक्टर नहीं हैं ?
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न, न. बिलकुल नहीं, हण्ड्रेड परसेंट नहीं, धैर्यपूर्वक
जवाबा उस स्मार्ट युवक ने.
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फिर इस तरह का आपत्तिजनक बोर्ड ! खतरनाक शब्द...
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सर, यही तो कला है, एड्स की. आधुनिक जीवन की. पॉजिटिव की.
और मैं अवाक्. यहाँ भी धंधा,
आकर्षक तौर-तरीके से ! चिता पर भी रोटी सेंकाई-एड्स के नाम पर. बेहिचक. ठीक वैसे
ही जैसे उत्तर-बिहार की ‘थर्ड-क्रॉप’. वहाँ भी यही एड्स है. सेवा-शुल्क, कमीशन. एड्स पॉजिटिव.
एच.आई.वी. पॉजिटिव.
--डा० राम लखन सिंह यादव
अपर जिला
जज, मधेपुरा.
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