बल से -
नफरत, विकृति, क्रोध की
क्षणिक भरपाई
होती है
बल से सुख नहीं
मिलता
सोने की लंका तक
राख हो जाती है !
इतिहास के पन्ने
खोलो
जब जब जिसने भी
बल का प्रयोग
किया
उसे जीत की ख़ुशी
मिली
पर शाश्वत नींद
नहीं
एक और बात पर गौर
करो
भारत ने कभी बल
नहीं आजमाया
.........
एक चमक भरी
मुस्कान
खिली न चेहरे पर ?
यही चमक है हमारा गौरव
.... हमने प्यार
देना सीखा
मिटटी को चूमा
युद्ध की हर
कलाएं सीखीं
पर समय की आंधी
के लिए ...
समय को कभी नहीं
ललकारा
ईश्वर को नहीं
नकारा
गाँव की बेटी को
बहन माना ...
हम कैसे बदल सकते
हैं
कैसे बल प्रयोग
से
एक बहन को मार सकते हैं !
रावण भी नफरत से
देखता है
कहता है घृणा से
-
'मैंने भाई का
कर्तव्य निभाया
सीता को उठाया
पर तृण का मान
रखा
अशोक वाटिका में
सीता को सुरक्षित रखा
तब भी हर वर्ष
तुम मेरा दहन करते हो
!!!!!!!!!!!!!!!!!
आश्चर्य - यह
मात्र मनोरंजन है तुम्हारे लिए
सीता के प्रति
सम्मान नहीं
होता गर सम्मान
तो मुझे जलाकर
तुम सीता को
यूँ तार तार नहीं
करते ..........'
-रश्मि प्रभा, पटना
सटीक व सार्थक प्रस्तुति।
'मैंने भाई का कर्तव्य निभाया
सीता को उठाया
पर तृण का मान रखा
अशोक वाटिका में सीता को सुरक्षित रखा
तब भी हर वर्ष तुम मेरा दहन करते हो
!!!!!!!!!!!!!!!!!
आश्चर्य - यह मात्र मनोरंजन है तुम्हारे लिए
सीता के प्रति सम्मान नहीं
होता गर सम्मान
तो मुझे जलाकर तुम सीता को
यूँ तार तार नहीं करते ..........'
बहुत प्रभावशाली पंक्तियाँ रश्मिप्रभा जी ! वाकई जिसे हम हर साल जला कर बुराई पर अच्छाई की जीत हासिल करने का जश्न मनाते हैं वह आज के उन हैवानों से कहीं अधिक मर्यादित और शरीफ था जो रावण के पुतले का तो हर साल दहन कर समाज के सामने स्वयं को राम जतलाना चाहते हैं लेकिन अपने मन के राक्षस को नहीं मार पाते !
आश्चर्य - यह मात्र मनोरंजन है तुम्हारे लिए
सीता के प्रति सम्मान नहीं
होता गर सम्मान
तो मुझे जलाकर तुम सीता को
यूँ तार तार नहीं करते ..........'
आपकी लेखनी को नमन ....
समझ नहीं आ रहा कि क्या टिप्पणी लिखूँ
आपके रचना मुझे शब्द विहीन कर गई ...बहुत बढिया दी
होता गर सम्मान
तो मुझे जलाकर तुम सीता को
यूँ तार तार नहीं करते ..........'
बात तो सही है...सिर्फ परम्परा निभाने के लिए ही रावण को जलाया जाता है...सीता को भयमुक्त करने के लिए नहीं!!
वाह रश्मिजी ......आपकी जितनी तारीफ़ करूँ कम है .....
वाह रश्मि दी...
बहुत सुन्दर रचना...
सादर
अनु
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...
अब रावण की गरिमा को भी समझने वाले नहीं रहे , अब सिर्फ और सिर्फ दुशासन ही बचे हैं जिनके लिए न रिश्ते की गरिमा है और न ही मान . अब सिर्फ स्त्री शब्द का एक ही अर्थ रह गया है भोग्या और कुछ भी नहीं। बड़े सुन्दर शब्दों में ध्यान को खींचा है।
रेखा जी की बात से सतप्रतिशत सहमत हूँ।
राम न बनें ..रावण ही बन सकें तो भी स्त्री की मर्यादा बची रहे। रावण के चरित्र का यह पक्ष नहीं देख पाते लोग। होड़ मची है, सिलसिले थमे नहीं अभी तक।प्रतिदिन वही समाचार ..बस स्थान और पीड़िता के नाम भर बदल जाते हैं। सामयिक रचना के माध्यम से अभियान को गति मिली। धन्यवाद!
रावण और सीता के मध्य रामायण की घटनाओं के माध्यम से आपने नारी विषय को जिस प्रकार प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है.. रावण के चरित्र को आपने जिस प्रकार देखा है और दिखाया है वह कई सवालों के उत्तर देता है.. और वह उत्तर है - मर्यादा और निर्वाह अपने 'स्वधर्म' का... जहाँ रावण एक तृण की ओट को सीता के सम्मान की मर्यादा मानता है, वही रावण लक्षमन रेखा से बंधी सीता की मर्यादा परवाह नहीं करता..
हमारी पौराणिक कथाओं में स्वधर्म के कई उदाहरण मिलते हैं.. और शायद राम के व्यवहार को भी तत्कालीन राजा का स्वधर्म माना जाना चाहिए!!
खैर यह एक अलग विषय है... मगर दीदी, आपकी यह रचना फिर से एक बार आपके "तीसरे नेत्र" की तरह है!! बहुत सुन्दर!!
आदरणीया माँ जी बहुत ही सुन्दर और दिए गए चित्र को हूबहू परिभाषित किया है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
bahut achchha likha hai aapne
सटीक, सार्थक प्रस्तुति...
सीता के प्रति सम्मान नहीं
होता गर सम्मान
तो मुझे जलाकर तुम सीता को
यूँ तार तार नहीं करते ..........'
बेहद गहन भाव लिये सशक्त अभिव्यक्ति
सादर