लल्लू जी एक बड़े राजा. चक्रवर्ती सम्राट. जब बच्चे
थे, पढ़ते थे- साँढ़ की पूँछ पकड़ कर पटक देते थे और सींग पकड़कर उनके पीठ पर चढ़ जाते
थे.
बड़े
होकर महाराजा बने. किन्तु साँढ़ पालने का शौक न गया. उन्होंने एक बलिष्ठ साँढ़ पाला
और उसे छुट्टा छोड़ दिया चरने-खाने के लिए. एक तरह से वह राजकीय साँढ़ था. अनाज
भंडार में घुसा, अनाज खा गया. कुछ छीटा, कुछ बिछा दिया. बाजार में गया, बाजार.
दूकान में दूकान और इस तरह स्कूल-कॉलेज, थाना-कोतवाली, हॉस्पीटल में घुसता रहा और
खाता-पीता रहा. खेत-खलिहान, गंवई-गाँव चरता रहा. जब साँढ़ बहुत बलशाली और बेलगाम हो
गया तो एक दिन वह लल्लू जी के सचिवालय दरबार में घुस गया. लेकिन वहाँ न कुछ खाने
को था, न पीने को. वह सिरे से उखड गया और लल्लू जी के विराजमान होने, आसीन होने का
‘तख्तोहाउस’ यानी कि आसन सींग में लपेट कर
भागा. लल्लू जी किसी तरह संभल कर उठे और लगे चोटियाने, रगेदने. लेकिन साँढ़ तब तक
राजसी कुर्सी लेकर बहुत दूर निकल गया था. बहुत दूर...उनकी पहुँच से बाहर.
और
लल्लू जी आज भी पीछा कर रहे हैं. उनका साँढ़ पकड़ में नहीं आ रहा है. और लोग-बाग कभी
उनके साँढ़ को, कभी उनकी सींग में टंगी स्मारक स्वरुप कुर्सी को और कभी लल्लू जी के
लाल-पीले होते चेहरे को देख रहे हैं. और हम भी. इस मालिक-साँढ़ के भस्मासुरी
द्वंद्व को. अंतर्द्वंद्व को साश्चर्य. साँढ़ कहीं बैल होता है ?
-डा० राम लखन सिंह यादव,
अपर जिला
जज, मधेपुरा.
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