आज कुछ जरूरी कागजात ढूंढ रही थी...ये फाइलें, वो
फाइलें, आलमीरे की सारी फाइलें मेरे बेडरूम में बिखरी थी...डायरी एवं किताबों की
सारी जगहें छान मारी मैंने लेकिन वो जरूरी कागजात नहीं मिली. परेशान होकर सोचने
लगी कि आखिर कहाँ रख दी मैंने वो कागजात ? एक बार फिर बुझे मन से उम्मीद की चादर
ओढ़ने अंतिम बार पुराने बक्से जिसमे कुछ पुरानी किताबें रखी थी मैंने...खोला..एक-एक
कर देखने लगी. तभी एक डायरी से गुलाब की सूखी पत्तियां मेरे चारों तरफ गिर कर बिखर
गईं...अनायास ही उस तरफ ध्यान चला गया मेरा..एक-एक कर चुनने लगी उन पत्तियों को..!
अतीत की बातें नजरों के सामने गुजरने लगे..........
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बचपन में उनका मेरे घर आना, साथ खेले लुका-छिपी, शाम
को दरवाजे पर खेलना, छत पर बैठकर अन्त्याक्षरी खेलना और बहुत सारी चुहलबाजी...जब
भी आते थे रुकते थे. कई दिनों तक परिवार के सारे लोग मिलकर मस्ती करते थे.
एक बार
गरमी छुट्टी में उनका आना हुआ. फिर वही मस्ती और धमाचौकरी होती रही. आज उन्हें
जाना था मेरे भईया के साथ अपने घर. घर के
सारे लोग उन्हें छोड़ने बाहर दरवाजे तक आए. उन्होंने अपने से बड़ों को पैर छूकर
प्रणाम किया. हमलोगों से एक बार फिर मिलकर बाय बोला. बाइक स्टार्ट कर दी भैया ने.
बुझे मन से सब उन्हें विदा करने लगे. तभी मेरी नजर पास के उस गुलाब के पौधे पर पड़
गई जिसकी टहनियों से दो अधखिले गुलाब लगे थे. मुझे अचानक शरारत सूझी और मैं जोर से
बोल पड़ी , “भैया,
एक मिनट रूकिये...”. सब
मुझे देखने लगे. बिना किसी परवाह के शरारत की भरी पोटली खोल कर उस लाल गुलाब की एक
कली तोड़ ली मैंने और उन्हें देते हुए कहा...जल्द ही आइयेगा..बहुत मिस करूंगी आपको
!
जोरदार
ठहाका लगाया सबने मेरी शरारत पर. माँ को भी शरारत सूझी और उसने दूसरी कली तोड़कर
उन्हें पकड़ाया और कहा, “आप भी दो उसे. याद है मुझे उन्होंने भी लेकर मुझे दिया और
हँसते हुए बाइक पर बैठ गए.
बचपन से
आदत थी मेरी डायरी लिखने की और सहेज कर रखने की सो बिना कुछ सोचे समझे सहेज कर उस
कली को डायरी के बीच रख दिया मैंने.
उस वक्त
वो भी बच्चे थे और मेरा दिल भी बच्चा. मेरे साथ-साथ सब उन बातों को भूल गए थे.
लेकिन बचपन की वो छोटी-छोटी शरारतें हमें कब एक-दूसरे के करीब ले आया पता ही न
चला. जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही दिल सतरंगी सपने देखने लगे. एक-दूसरे की यादों
के सहारे जीने की जैसे आदत सी पड़ गयी हो.....बहुत कम ही मिलना होता था हमारा. मिले
भी तो कभी घंटे-दो घंटे के लिए परिवार के बीच में. अकेले तो आजतक कभी मिल ही नहीं
पाए थे हम...फिर भी पता नहीं हमारे बीच कैसा पवित्र रिश्ता था कि यदि हम एक-दूसरे
के बारे में सोचते भी थे तो हमें इसका आभास हो जाता था. तस्वीर से की गई
बातें..एक-दूसरे को एहसास दिला जाती. दिल के एक कोने में कसक सी उठी थी..... “लवली$$$$$$ !!!!”...पापा की आवाज से मैं अतीत से बाहर आई.
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मैंने
तो सारी डायरी फाड़ दी थी, फिर आज अचानक ये कहाँ से सामने मिल गया. फिर पन्ने पलटने
लगी. एक-एक पन्ना और एक-एक शब्द उनके लिए थे उसमे.
पापा ने
फिर आवाज दी तो “जी$$$” कहकर
खड़ी हुई मैं. क्या वो कागज मिला ? पापा का सवाल था. नहीं कहने के साथ ही मेरी नजर
उस कागज़ पर जा टिकी जिसे ढूँढने के लिए मैं कबसे परेशान थी. फिर मैं बोल पड़ी, “हाँ....पापा मिल गया.”
दिल ने
कहा एक और कोई “कसक” मिल गई. पापा को कागज़ पकड़ा कर
डायरी ले किचेन की तरफ बढ़ गई..टुकड़े किये उसके और तीली जलाकर रख दी उसके ऊपर.
आँखों में संजोये सपने आँखों के सामने जलने लगे...बहते हुए आंसूओं ने दिल से कहा..
“आई एम सॉरी जान !”
(आज की डायरी)
-श्रुति भारती ‘लवली’
मधेपुरा.
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