वही ख्याल: लीक से हटकर.....(7) ( 01 फरवरी 2013)
घिसी पीटी लीक हो
तो पगडंडियाँ
नहीं बनती हैं ...
और जब पगडंडियाँ
नहीं बनतीं
तो नए रास्ते,नए विचारों की शाखाएं नहीं बनतीं
....
लीक से हमेशा एक
अगली सार्थक सोच पनपे
तो समाज के नए
अंकुरों को
दो बूंद ज़िन्दगी
के मिलते रहते हैं
नहीं तो पोलियो !
शंकाएं और
अंधविश्वास में फर्क करना अति आवश्यक है
मनोबल की रीढ़
मजबूत ना हो
तो सीधे चल पान
मुमकिन नहीं ...
रश्मि प्रभा
क्या मैं
जीवित रहूँगी
रात होने को है
मैं सड़क पर
अकेली खड़ी हूँ
बहुत से कारवाले
गुजर गए है बिना
रुके
मैंने भी कोशिश
नहीं की किसी को रोकने की
सारी भरी बसें
चली गयी बिना
मुझे देखे
कई भूखे साथियों
ने लिफ्ट देने की कोशिश की
हिम्मत नहीं जुटा
पाई किसी के साथ जाने की
मैं पैदल चल देती
हूँ
सत्रह किलोमीटर
चल पाऊँगी क्या ?
घर तक सवेरा हो
जायेगा
क्या करू ?
घर में अकेली माँ
जीतेजी मर रही
होगी
मेरे बचकर आने की
प्रार्थना कर रही होगी
और कुछ और समय
बीत जाने पर
जानवर निकल
आयेंगे मादों से
और हो जायेगा
जंगल राज
रक्षक लाल-लाल
आँखों से सराबोर
भक्षक हो जायेंगे
सरकार सोने चली
जाएगी
पहरुए तमाशबीन बन
जायेंगे
आज मुझे नज़र
नहीं आ रही बचने की कोई उम्मीद
ये देश मेरा है
क्या मुझे बचने
की
कोई उम्मीद करनी
चाहिए
क्या मैं जीवित
रहूँगी
शायद .....
============================ =========
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(6) ( 31 जनवरी 2013)
============================ =========
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(5) ( 30 जनवरी 2013)
============================ =========
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(4) ( 29 जनवरी 2013)
बेचारा नादान है
============================
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(2) (27 जनवरी 2013)
============================
============================ =========
============================ ==
वही ख्याल: लीक से हटकर .....(1) (26 जनवरी 2013)
कल्पना की कोई सीमा नहीं ......
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(6) ( 31 जनवरी 2013)
तुम जीना चाहते
हो ?
स्पष्ट हो इस चाह
को लेकर ?
अपने घर में
भगवान् को रखना चाहते हो ?
क्या अपनी पूजा
में तुम एक क्षण के लिए भी
सहज भाव से जुड़े
हो ?
अपने को टटोलो
.... जीने की लालसा तीव्र है
या मारने की,अपमानित करने की !
घंटी चांदी की
लेकर संतोष है
या प्रभु की एक
झलक से सम्पूर्ण पूजा है !
अजीब लगेगा इन
सवालों से
पर यदि तुम जियो
और जीने दो में विश्वास रखते हो
तो इस सवाल को
समझोगे
...........
रश्मि प्रभा
धूप के गाँव से
छाँव माँगने चला
ज्यों निवाला शेर
के
मुँह से छीनने
चला।
पाखण्ड है
प्रचण्ड
खण्ड-खण्ड है
मनुष्यता
उठी हुयी खड्ग से
जख़्म कौन दे रहा
इससे दर्द को है
क्या
क्रूरता का उम्र
से
नाता बोलो क्या
भला !
मर रही है दामिनी
रोज ही जरा-जरा
कैसा है विधान
दुष्ट भी
सुधारगृह चला।
ज़ख़्म रोज दे रहा
न्याय-न्याय रट
रहा
लो, सुधर के फिर नया
शिकार ढूँढने
चला।
दर्द तो नकारता
है
उम्र की ये
बेड़ियाँ
क्या जाने दर्द ‘दर्द’ का
विधान ये
सड़ा-गला।
कौशलेन्द्र
============================
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(5) ( 30 जनवरी 2013)
हम क्यूँ नहीं जाग रहे ?
क्यूँ नहीं उबर रहे
उबार रहे ज़ख़्मी शब्दों से ?
दर्द कितना गहरा था
इसके लिए चाक़ू की नोक चुभोना ज़रूरी तो नहीं
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
घर में कई हादसे होते हैं
जिसे हम जानते हैं
उसे हम सिर्फ आंसुओं से कह पाते हैं
या अपने बच्चे का सर सहलाते हुए
असह्य दर्द को शब्दों की तलाश नहीं होती
असह्य दर्द के शरीर की हरकतें
उस जैसे दूसरे मन को छू ही लेती हैं
उसे झकझोरने की आवश्यकता नहीं होती
वह अपने दर्द की विद्युत् तरंगों से उद्द्वेलित होता
है
अपना दर्द हो तो दूसरे का दर्द
अपने दर्द संग बहता जाता है
....... कहीं दर्द का समंदर मिले
तो गोता लगाकर उन नदियों की पीड़ा पढना
जिन्होंने पापनाशिनी गंगा की तरह
मुक्ति के द्वार खोले थे !
और यह भी जानना
कि नदी की विवशता तभी तक है
जब तक वह स्वक्षता के लिए बह रही है
जब वह उबलती है, वेग में आती है
तो उसमें उतरने की धृष्टता
कोई नहीं करता
....समझना ये है
कि ख़ामोशी का अर्थ उदासीनता नहीं
नदी मौके देती है
फिर कहर ............ सबने देखा ही है !!!
तो उस आकस्मिक कहर से पूर्व जागो
जो तुम्हें जीने नहीं देते
उन्हें सोने मत दो
जागो जागो जागो ....
रश्मि प्रभा
मासूमयित के मापदंड
दिल्ली में हूए वीभत्स सामूहिक दुष्कर्म के एक
आरोपी को नाबालिग मान लिया गया है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि हिंदुस्तान के
कानून को इस कुकृत्य में सबसे ज्यादा बर्बरता दिखाने वाले अमानुष के चेहरे पर
मासूमयित नजर आ रही है।
आमतौर पर नकारात्मक भावों के साथ अपने विचारों को साझा नहीं करती हूं।
कोशिश भी यही रहती है कि विषय कोई हो, कुछ सकारात्मक और अर्थपूर्ण सोचा और लिखा जाय । पर आज तो यह कानूनी
निर्णय मन-मस्तिष्क की समझ से ही परे लग रहा है ।
निर्ममता की सारी सीमाएं पार करने वाले को किसी का मन बच्चा समझे भी तो
कैसे? मर्यादा के मायने
भी ना समझने वाले को मासूम कहा भी जाए तो कैसे? ऐसे में अगर हमारी कानून व्यवस्था उसे मासूम मान रही
है तो निश्चित
रूप से मासूमयित के मायने भी नए सिरे से तय करने होंगे। कम से कम मेरा मन तो किसी
लडक़ी को शारीरिक और मानसिक प्रताडऩा देने में कू्ररता की
हर हद पार करने वाले को ना
मासूम मान सकता है और ना ही बच्चा।
हमारे देश के कोने-कोने में तीन महीने की दुधमुंही बच्ची से लेकर
वृद्ध महिला तक, आए दिन औरतें
ऐसे दुराचार का दंश झेलती हैं। बात अगर उम्र की ही है तो ऐसे मामलों में आज तक
इतनी गहराई से विचार क्यों नहीं किया गया?
दामिनी केस के मामले में बात सिर्फ कानूनी निर्णय दोषियों को दण्ड
देने भर की नहीं है। क्योंकि इस का निर्णय पूरे समाज के मनोविज्ञान को
प्रभावित करने वाला निर्णय होगा। ऐसा पहली बार हुआ है जब हमारे देश में इस जघन्य घटना के कारण
महिलाओं की सुरक्षा और अस्मिता के मुद्दे ने आम नागरिक को झकझोर कर रख दिया।
जनाक्रोश जनआंदोलन बना। लोगों ने कई दिनों तक सडक़ों पर उतर कर इस बर्बर
काण्ड का विरोध किया। ऐसी जन सहभागिता के बावजूद अगर यूँ अपराधी बच निकलता है
तो यह दुखद ही है |
हमारी कानून व्यवस्था की नाकामी पर तो यूं भी सवाल उठते ही रहे
हैं। दामिनी केस में आमजन ने भी खुलकर विरोध जताया | ऐसे में जनआंदोलन का रूप लेने के वाबजूद
भी लचर व्यवस्था के चलते आरोपी बच निकलते हैं तो यह कानून व्यवस्था की
हर तरह से विफलता ही कही जाएगी। विचारणीय यह भी है कि ऐसे निर्णय से देश के
लाखों युवाओं में भी गलत संदेश जाएगा। ऐसा निर्णय समाज के हर माता-पिता की आशाओं पर
कुठाराघात करने वाला होगा जो अपनी बेटियों को आगे बढने का हौसला दे रहे
हैं। इस निर्दयी आरोपी को नाबालिग बताकर छोड़ देने से यह प्रश्न भी अनुत्तरित
ही रह जायेगा कि दामिनी के संघर्ष से क्या बदला?
मासूमयित के मापदण्ड क्या हों ? इस मुद्दे पर विचार किया जाना
जरूरी है । यह रेखांकन कानून और समाज दोनों को ही करना होगा,| नहीं तो आगे आने वाली पीढियां ऐसा पाठ बिना
सिखाये ही सीख लेंगीं | सरल
जो है
.....गलती करो और बच भी निकलो |
डॉ. मोनिका शर्मा
============================
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(4) ( 29 जनवरी 2013)
अन्याय के विरोध
में कई अन्याय
अपनी गोटी लाल कर
रहे
सबसे पहला कारण
विकृति का जो है
पहले उसे तो खत्म कीजिये ...
हर दिन अश्लील
गाने
अश्लील लटके-झटके
सीखने को सीखेंगे
क्या
ये युवा कर्णधार !
क्या बकवास है ...
टीवी बंद कर
दीजिये !!!
क्या बनने के लिए
मात्र टीवी है ?
उकसाने के लिए सब
एक दूसरे के सर पर पांव रख रहे
गंदगी फ़ैलाने के
लिए
सबकुछ खुलेआम
परोस रहे !
दुर्घटना पर दुःख
प्रगट करने से पहले
अपनी सोच का आकलन
करो
की तुमने क्या
दिया है बच्चों को !
लड़के ये पहनते
हैं तो कोई नहीं टोकता"
इस तर्क-कुतर्क
से क्या होगा
शरीर लाज का
हिस्सा है
इसका वजूद ढंग के
कपड़ों में है
.....
भारत अपने पहनावे
को लेकर
एक अलग छवि रखता
था
अब तो रहन-सहन,चाल-ढाल
सब आदिम हो गए
हैं
जहाँ जंगली जीवन
था
वही सही था
तो सभ्यता का युग
शुरू न होता !
विरोध ज़रूरी है
पर उससे पहले
अपनी सोच का विरोध भी ज़रूरी है
बच्चों की ज़ुबान
पर जो गीत मचलते हैं
उनकी समझ से परे
उनकी जो भाव
भंगिमा होती है
वह सर झुका देती
है
.... बीजारोपण
विषैला
सिंचन विषैला
फिर ...............
चीखने से पहले
गंदे शोर का
विरोध कीजिये
फिर देखिये ..
रश्मि प्रभा
दामिनी...नहीं
मिलेगा तुम्हें न्याय
मत करो दामिनी
तुम किसी इंसाफ
का इंतजार
नहीं मिलेगा
तुम्हें न्याय
उम्र कच्ची थी
उसकी
इसलिए जुर्म
बड़ा नहीं
क्या हुआ जो
उसने किया
तुम्हारे दामन
को तार-तार
सरिया को तुम्हारे
अंग के पार
बच्चा है
स्कूल
सर्टिफिकेट ने कहा
जुवेनाइल जस्टिस
बोर्ड ने माना
छूट गया वह
दुर्दांत है तो
क्या
है तो कमउम्र..मासूम
और नाबालिग को
सजा
इस देश का कानून
नहीं देता
देश के नाबालिगों
मेहनत मजदूरी मत
करना
मगर
कर सकते हो बलात्कार
है तुम्हें
सरकारी छूट....
मत करो दामिनी
तुम किसी इंसाफ
का इंतजार
नहीं मिलेगा
तुम्हें न्याय
रश्मि शर्मा
बलि के बकरे सा
मन
सिकुड़े शरीर के
साथ मेमियाता है
......... अदृश्य
में कोई रस्सी खींचता जाता है
घसीटते हुए बढ़
जाता है शरीर
धुल देख फफकता है
मन
...........
लगता है - सिर्फ
मैं हूँ वह मन
पर यहाँ तो भीड़
है
परम्परा की चाह
बुदबुदाती है
- पहले सब कितना
अच्छा था
सब पास पास थे
कभी कभार बजती
फोन की घंटी
किलकारियों से
खुश हो जाती थी
अब तो बातों का
सिलसिला इतना लंबा है
कि - उबन होने
लगी है
स्विच ऑफ होता है
मोबाइल
या ...... कई
तरीके हैं नेटवर्क से हटने के
सबकुछ मशीनी !
मन से कोई कुछ
सुनता ही नहीं
कोई न कोई धुन
लगी रहती है
सब भागने की
फिराक में
..........
क्या अब वे दिन
नहीं आयेंगे कभी ?
रश्मि प्रभा
कुल्टा कुलच्छिनी
सोई आज,
हम उम्र चचेरे
चाचा के साथ
मिटा दी मर्यादा
कटा दी नाक ।
उफ़ ! उम्र का ये
बढ़ता बोझ
संभाला न गया
न कर सकी इंतज़ार
बाप
की खोज का !!!
पीट-पीट कर माई
ने
जब डाला अन्दर
हाँथ
सौ रुपए के नोट
ने
फाड़ दिए जज़्बात
।
पसीने से कुछ
गीला
मुड़ा-तुड़ा वो
नोट
ले गया साथ अपने
बेटी का जिस्म
नोच ।
कल ही तो रो रही
थी मै
इस नोट के लिए
मिल जाये गर तो
जाऊँ
ले आऊँ दवा जिससे
हो जाये गर्भपात
!
चार-चार बच्चे
हैं
और अब न चाहिए
रोटी इनकी अटती
नहीं
जान मेरी मिटती
नहीं
कहते हुए जब खानी
चाही थी
गोली मैंने धतूरे
की
रोक लिया था मेरा
हाँथ
न करो माँ ऐसा,
सब ठीक हो जायेगा
।
न समझी थी दिलासा
का
मतलब उस वक्त मै
सोचा था उठा
लूंगी कोई
भार खुद से भारी
न सोचा था मगर
बेटी न रहेगी
कुँवारी ।
अब क्या करूँ इस
नोट का
ये सोचते हुए
पकड़ कुलच्छिनी
बेटी का हाँथ
ले जाती है खींच
वो अपने साथ
कराने होंगे अब
दो-दो गर्भपात
!!!
इंदु सिंह
============================
वही ख्याल: लीक से हटकर.....(2) (27 जनवरी 2013)
सती-प्रथा,
दासी-प्रथा, दहेज़-हत्या,..... और कन्या को गर्भ से ही हटा देने की प्रक्रिया .... समाज की सड़ी-गली
मानसिकता है. आखिर समाज ने यह क्यूँ किया ! जबकि ईश्वर ने स्त्री को माँ का दर्जा
देकर सृजन का मुख्य स्रोत बनाया.
पति की मृत्यु के
बाद उसे जीने का अधिकार नहीं था - क्यूँ ? कभी सोचा किसी ने ? क्योंकि स्त्री के प्रति समाज के आदर्श हमेशा ताक़ पर
रहे, संभ्रांत कहे जानेवालों
की लोलुपता स्त्री के लिए एक काल था.
दासी-प्रथा में
एक स्त्री मन को रिझानेवाली जिंदगी थी .... उसकी स्वीकृति अस्वीकृति से परे .
विधवा होने पर
केश काट देना - ताकि आकर्षण की संभावनाएं कम हो जाएँ ......... पर आम पुरुष !!! उसको तो रात के अँधेरे में
एक पागल भिखारन भी सुन्दर लगती है !
विधवा-विवाह,
परित्यक्ता विवाह हुए - पर आज भी
अधिकाँश लोग उसे हेय दृष्टि से ही देखते हैं - आखिर क्यूँ ?
विधुर पुरुष के
पुनर्विवाह पर तुरंत विचार किया जाता है - उसके बच्चों के लालन-पालन को लेकर या बच्चे नहीं हुए तो
उसके खान-पान को लेकर ! पर एक स्त्री जो हर कदम पर असुरक्षित होती है, उसके लिए सिर्फ हिकारत भरे शब्द !
============================
कन्या भ्रूण
हत्या मजबूरी है !!!:( - (अपवाद होते हैं)
सिसकियों ने
मेरा जीना दूभर
कर दिया है
माँ रेsssssssssssssss
............
मैं सो नहीं पाती
आखों के आगे आती
है वह लड़की
जिसके चेहरे पर
थी एक दो दिन में माँ बनने की ख़ुशी
और लगातार होठों
पर ये लफ्ज़ -
'कहीं बेटी ना हो
....!'
मैं कहती - क्या
होगा बेटा हो या बेटी
!!!
अंततः उसने
बेरुखी से कहा -
आप तो कहेंगी ही
आपको बेटा जो है
....'
मेरी उसकी उम्र
में बहुत फर्क नहीं था
पर मेरे होठों पर
ममता भरी मुस्कान उभरी - बुद्धू ...
!!!
आज अपनी ज़िन्दगी
जीकर
माओं की फूटती
सिसकियों में मैंने कन्या भ्रूण हत्या का मर्म जाना
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
नहीं फर्क पड़ता
शिक्षा से
कमाने से
लड़कियों के जन्म
पर उपेक्षित स्वर सुनने को मिलते ही हैं
उन्हें वंश मानना
किसी को गवारा नहीं
वे असुरक्षित थीं
- हैं ....
ससुराल में किसके
क़दमों के नीचे अंगारे होंगे
किसके क़दमों के
नीचे फूल - खुदा भी नहीं जानता
.... रात का
अँधेरा हो
या भरी दोपहरी
कब लड़की गुमनामी
के घुटने में सर छुपा लेगी
कोई नहीं जानता
नहीं छुपाया तो
प्रताड़ित शब्द
रहने सहने के ऊपर
तीखे व्यंग्य बाण
जीते जी मार ही
देते हैं
तो गर्भ में ही
कर देती है माँ उसे खत्म !!!
= नहीं देना
चाहती उसे खुद सी ज़िन्दगी
गुड़िया सी बेटी
की ज़िन्दगी
खैरात की साँसें
बन जाएँ - माँ नहीं चाहती
तो बुत बनी मान
लेती है घरवालों की बात
या खुद निर्णय ले
लेती है
.........
कन्या भ्रूण
हत्या के खिलाफ़ बोलने से क्या होगा
कन्या रहेगी बेघर
ही
या फिर करने
लगेगी संहार
......
आन्दोलन करने से
पहले अपने विचारों में बदलाव लाओ
जो सम्भव नहीं -
तो खुद को विराम
दो
और सुनो उन
सिसकियों को
जिन्होंने इस
जघन्य अपराध से
आगे की हर
दुह्संभावनाओं के मार्ग बंद कर दिए
सीता जन्म लेकर
धरती में जाये
उससे पहले बेनाम
कर दिया उन्हें गर्भ में ही
....
आओ आज मन से उन
माओं के आगे शीश झुकाएं
एक पल का मौन
उनके आँचल में रख जाएँ
.................. :(
रश्मि प्रभा
अन्यथा
क्योंकि घटना
को घटने के लिये सिर्फ़ एक क्षण ही काफ़ी होता है …
एक प्रश्न
जो सबके दिल मे
उठता है
जीवन तो सबने
देखा
क्योंकि
सामने है ………
बेतरतीब
पगडंडियों से गुजरता
एक मोड पर आकर
अंधेरे में विलीन
हो जाता है
प्रश्न यहीं आकर
सिर उठाता है
आखिर उस अंधेरे
के पार क्या?
क्या है अंधेरे
के दूसरी तरफ़
क्या है कोई उजला
पक्ष
क्योकि सुना तो
यही है
हर अंधेरे के बाद
उजाला होता है
तो क्या है कोई
शुक्ल पक्ष उस ओर भी
सिर्फ़ जीवन के
बाद मृत्यु
और मृत्यु के बाद
जीवन
कह देने भर से तो
नही माना जा सकता ना
जब तक कि
इसी होश में
उस पार का नज़ारा
ना दिख जाये
क्योंकि
मरे पीछे स्वर्ग
किसने देखा ………इसका तो कोई
प्रमाण नहीं
तो फिर
जो है ……इसी जीवन में है
फिर चाहे खोज हो
या कोई अन्वेषण
जो खोना है यहीं
खोना है
और जो पाना है
यहीं पाना है
वो भी पूरे होशो
हवास के साथ
तभी तो सार्थकता
है जीवन की
यही तो औचित्य है
जीवन का
जो अनसुलझे रहस्य
हैं जीवन के ब्रह्मांड के
उन के पार जाया
जाये
और हर प्रश्न
अनुत्तरित ना रह जाये
मगर इसके लिये भी
सुना है एक
शिद्दत जरूरी होती है
एक ज़िद जरूरी
होती है
एक चाहत जरूरी
होती है
क्योंकि
खोजकर्ता तो बहुत
हैं मगर
जो शिद्दत से
चाहे और पाये
ऐसे विरले ही
होते हैं
हौसलों के पार एक
आसमां और भी है
शायद ये उन्ही के
लिये कहा गया है
बस अब जरूरत है
तो सिर्फ़ इतनी
एक मोती समन्दर
से छाँट लाने की
वैसे भी सतहों पर
तो सिर्फ़ रेत ही रेत होती है
और मुझे जाना है
उस गहराई में
जहाँ अस्तित्व की
आहट नहीं होती
बस एक सुगबुगाहट
होती है
दूसरे जहान की
उस पार की
नीली रौशनी के
उजास की
मृत्यु………क्या दोगी वो मौका मुझे
अस्तित्व के बाद
एक और अस्तित्व खोजने का …………
क्या चाहना शुरु
कर दूँ उसी शिद्दत से
क्योंकि
घटना को घटने के
लिये सिर्फ़ एक क्षण ही काफ़ी होता है
बशर्ते
किसी ने शिद्दत
से उसे चाहा हो
-वंदना गुप्ता
============================
वही ख्याल: लीक से हटकर .....(1) (26 जनवरी 2013)
कल्पना की कोई सीमा नहीं ......
ना ही विरोध करता
है -
प्रेम, मृत्यु,
विकृति, श्रृंगार, अध्यात्म
बात एक ही होती है
पर कई अलग से
ख्यालों से
गुजरता है शक्स ! ... .
============================
पढ़ते हुए आप समझते हैं - लिखना
आसान है
चंद शब्द जमा कर लो इधर-उधर
से
शब्दकोश से
और ले लो जाने-माने लोगों की पंक्तियों के भाव ...
ऐसा कुछ भी सही लेखन, पठन के आगे
दम तोड़ देते हैं
............ सही कलम के आगे -
घटनाएँ, शब्द, अतीत, भविष्य की चिंता,
वर्तमान से आँखें चुराना
ह्रदय को बेधते हैं
करवटों के मध्य आँखों से कुछ
टपकता है
अन्दर में रिसता है
तब घबड़ाकर लेखक कुछ लिखता है !
दर्द किसी टिप्पणी का मोहताज नहीं होता
संवेदित आहट कितने भी हल्के
हों
छू जाते हैं ...
आप ऊपर ऊपर कहते हो - ये क्या है भाई !
पर चक्रवात में जिसकी आँखें
धूल से भरी है
वो क्या समझाए
किसे समझाए
और क्यूँ ??????????
सूक्तियों से चुभे कांच नहीं
निकलते
दर्द की अनुभूतियों के संग निकालो
तो अनकहा भी अपना होता है
और वही कठिनाईयों से कुछ पल
चुराकर लिखता है
मरने से पहले जीने का सबब बना
लेता है ........
--रश्मि
प्रभा
============================
यूँ ही बैठे-बैठे जब पलटे
अपनी डायरी के पन्ने
जाना तब मेरे दिल ने की
कुछ अनकहा सा
कुछ अछूता सा
ना जाने मेरी कविता
में क्या रह जाता है
प्यार और दर्द मे डूबा मनवा
ना जाने कितने गीत
रोज़ लिख जाता है
पर क्यूं लगता है फिर भी
सब कुछ अधूरा सा
कुछ कहने की ललक लिए दिल हर बार
कुछ का कुछ कह जाता है
दिल ने मेरे तब कहा मुझसे मुस्कारा के
कि जो दिल में है उमड़ रहा
वो दिल की बात लिखो
कुछ नयेपन से आज
एक नया गीत रचो
लिखो वही जो दिल सच मानता है
एक आग वो जिस में यह दिल
दिन रात सुलगता है ..
कहा उसने ------
लिखो कुछ ऐसा
जैसे फूलो की ख़ुश्बू से
महक उठती है फ़िज़ा सारी
दूर कहीं पर्वत पर जमी हुई बर्फ़ को
चमका देती है सूरज की
पहली किरण कुवारीं
या फिर पत्तो पर चमक उठती है
सुबह की ओस की बूँद कोई
आँखो में भर देती है ताज़गी हमारी
या फिर तपती दोपहर में दे के छाया
कोई पेड़ राही की थकन उतारे सारी
लिखो पहली बारिश से लहलहा के फ़सल
दिल में उमंग भर देती है उजायरी
महकने लगती है मिट्टी उस पहली बारिश से
सोँधी -सोँधी उसकी ख़ुश्बू
जगाए दिल में प्रीत न्यारी
लिखो कुछ ऐसे जैसे "हीर "भी तुम
और "रांझा भी तुम में ही है" समाया हुआ
प्यार की पहली छुअन की सिरहन
जैसे दिल के तारो को जगा दे हमारी
या फिर याद करो
अपने जीवन का "सोलवाँ सावन"
जब खिले थे आँखो में सपने तुम्हारे
और महक उठी थी तुम अपनी ही महक से
जैसे कोई नाज़ुक कली हो चटकी हो प्यारी प्यारी
सुन कर मैं मन ही मन मुस्काई
और एक नयी उमंग से फिर कलम उठाई
रचा दिल ने एक नया गीत सुहाना
कैसा लगा आपको ज़रा हमे बताना ??:)
कुछ कहा अलग सा नया :) सही है ... बहुत बहुत शुक्रिया रश्मि जी :)
वक्त आ गया है अब लीक से हट्कर चलने और कुछ कर गुजरने का और ये एक शुरुआत भर है।
बहुत खूब!
आभार .... आप तो कुछ न कुछ बेहतर करने में जुटी ही रहती हैं.... :)
अब ऐसी ही रचनाओं की आवश्यकता है, चिंतन को विवश करने वाली। रश्मि जी के काव्यमय कैप्शंस तो और भी झकझोरने वाले हैं, सभी रचनाओं के सन्देश को और भी अर्थ देने वाले। निरंतरता की कामना है।