आह भरकर मेट्रो में सवार
लिपी पुती नौकरी पेशा औरतों को
दिनभर अंगीठी में धुवां धुवां होती
दिनभर अंगीठी में धुवां धुवां होती
उनकी हसरते शहर की औरतों की
आहों से टक्कर ले रहीं है
बच्चों को धकियाती मुकियाती
लगभग घसीट ती सड़क पर
दौड़ रही है कसबे की औरते
कैब में ठुंसे शहरी नौनिहालों को
कैब में ठुंसे शहरी नौनिहालों को
घूर कर देखती है कसबे की औरते
बासी रोटी आचार के टुकड़ों
के साथ बांधकर
भरी मन से विदा करती है
चीस ब्रेड, नूडल्स, बर्गर, के लंच पैक को
चीस ब्रेड, नूडल्स, बर्गर, के लंच पैक को
मन मसोस कर निहारती है
कसबे की औरते
क़स्बा और शहर घुलमिल गया है
औरतों की घुटन
औरतों की घुटन
संत्रास और पीड़ा में क्यों कि
गांठे उधर भी हैं और इधर भी ,
गांठे उधर भी हैं और इधर भी ,
सारी हसरतें , आहें
जकडन से खुलने को आतुर हैं
औरतें औरतें ही हैं
औरतें औरतें ही हैं
फिर वो शहर की हों
या कसबे की औरतें
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डॉ सुधा उपाध्याय
प्यारी कविता है। बधाई.
aaderniya achchi hi sunder rachna