अग्निबीज महज तेईस साल में
दिसंबर सोलह से उन्तीस,
2012 के मार्मिल अंतराल में
निशा के गहन अंधकूप में वह
जूझती रही अदम्य जीजीविषा से
नारी-मर्दन/यौन हिंसा/विकृत सोच के
खूनी जबड़ों के संजाल में
सो रहा था पूरा नपुंसक शासन
और निर्जीव समाज जब
ऊनी चादर ताने/खर्राटे भरता
मस्त मगन दोशाल में
जूझते-जूझते बर्बर दुराचारों
और विभेदकारी विचारों से
बुझ गई कंदील वह
जरायम के झंझावाती जंजाल में
और कुरेद दी हमारी सोई संवेदना
दायित्व बोध
ठीक लक्ष्मीबाई/भगत सिंह की मानिन्द
बेमिसाल/मिसाल में
दामिनी/माँ भर्ती की बेटी महान
व्यर्थ न जाएगा यह बलिदान
और फिर न भटकेंगे हम
तेरे-मेरे के तुच्छ भ्रमजाल में
तेरी शहादत/उद्दाम उर्जा
आदर्शों ने हमें जीना सिखाया
और प्रज्ज्वलित कर दी ज्योति नई
मानवता की बुझती मशाल में
दामिनी/अप्रितम ध्वजावाहक
तू साम्य की/नई सोच की
हम तेरी जीजीविषा को करते हैं सलाम
इस प्रात:काल में
अब न हो कहीं भी भ्रूण-हत्या
लिंग-भेद/बलात्संग किसी से
और जगमगा उठे तेरे
स्वप्नों की सुगंध/इस नए साल में..
अपर जिला जज-प्रथम
मधेपुरा (बिहार)
(लखनऊ, 31.12.2012)
आप मुझे मानव के रूप में देवता नजर आरहे है . जज होते हुए भी आप देश की सच्चाई बता रहे है। आप जैसे देव ही इस भारत की संस्कृति संस्कार बचा रहे है। जय हिन्द