डर जमा है 
ह्रदय तल में तुम्हारे 
अपने ही करम से 
जानते हो भलीभांति यह 
लांघते रहे हो हद अपनी 
बारंबार तुम ही  
छूते रहे हो
मेरे सब्र की आखिरी सीमा 
इसलिए मेरे एक प्रतिकार से 
बौखला जाते हो इस कदर 
जैसे छूटती रस्सी से गिरा हो 
गागर कोई छपाक से 
शब्द मेरे भर गए हो 
और भारी प्राण तेरे 
डूब रहे हो  आघात से 
बेचैन डोलते हो 
नहीं लगता मन कही 
उलझते  हो बात बेबात ही 
जो भी मिले सामने 
लिख नहीं पाते कोई कहानी नयी 
संवेदना भी वेदना से
हो गयी हो  बोझिल जैसे 
साँच की आँच सहन नहीं
कर पाती  कविता तेरी 
अंत अनिश्चित सा  नाटक
अटक जाता है 
कही इतिहास में 
सिमटा नहीं पाते निबन्ध का दायरा 
तब तिलमिलाकर पकड़ लेते हो तुम 
चोटी सी कोई नब्ज नाजुक 
फटकारते हो शब्द -चाबुक 
डंके की चोट पर 
तुम्हारी प्रतिक्रिया में 
तिजोरी शब्द शास्त्र की  
खुल जाती है तब 
जो पुरखो से मिली है 
सदियों की सौगात बनकर 
नीच कमीनी बदजात कुलटा 
जानता था 
यही है तुम्हारा त्रिया चरित्र  
यह तो होना ही था आखिर एक दिन ।




डॉ गायत्री सिंह 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी में
परास्नातक एवं पी एच डी 
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन 
संपर्क : एम आइ जी -न्यू ए डी ए कॉलोनी, मम्फोर्डगंज ,इलाहाबाद  -211002

1 Response
  1. सुन्दर रचना | बहुत अच्छी कविता |


    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
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