स्त्री
विमर्श ने असली जामा तभी से पहना जब से महिला दिवस
और स्त्री सशक्तिकरण जैसे
मुद्दों और दिनों की शुरुआत हुई और स्त्री को सोचने पर विवश किया कि
वो क्या थी और क्या है और आगे क्या हो सकती है .
उससे पहले स्त्री जागृति के
लिए बेशक प्रयास होते रहे मगर उसकी पहुँच हर नारी तक नहीं हो पा
रही थी लेकिन
जब से स्त्री के लिए खास दिवस आदि को इंगित किया गया तो उन्हें लगा
शायद हम भी कुछ खास हैं या कहिये किसी गिनती में आती
हैं वर्ना तो स्त्री ने
अपने को सिर्फ घर परिवार के दायरे में ही सीमित कर
रखा था बस कुछ स्त्रियाँ
ही थीं जो पुरानी परिपाटियों
से लड़ने का जज्बा रखती थीं . बेशक स्त्री
कभी कमज़ोर नहीं रही लेकिन उसे हमेशा अहसास यही कराया गया कि
उसमे कितनी
कमियां हैं और वो खुद को उसी दायरे में कैद करके रखने लगी .
कितना
सुन्दर लगता है ना जब हम सुनते हैं आज महिला दिवस है
, स्त्री सशक्तिकरण
का ज़माना है , एक
शीतल हवा के झोंके सा अहसास करा जाते हैं ये चंद लफ्ज़
. यूँ लगता है जैसे सारी
कायनात को अपनी मुट्ठी में कर लिया हो और स्त्री को
उसका सम्मान और स्वाभिमान
वापस मिल गया हो और सबने उसके वर्चस्व को स्वीकार कर लिया हो एक
नए जहान का निर्माण हो गया हो ...............कितना
सुखद और प्यारा सा अहसास
!
पर
क्या वास्तव में दृश्य ऐसा ही है ? कहीं
परदे के पीछे की सच्चाई इससे इतर तो नहीं ?
ये
प्रश्न उठना स्वाभाविक है क्योंकि हम सभी जानते हैं
वास्तविकता के धरातल पर
कटु सत्य ही अग्निपरीक्षा देता है और आज भी दे रहा है . स्त्री विमर्श ,स्त्री
मुक्ति, स्त्री दिवस , महिला
सशक्तिकरण सिर्फ नारे बनकर रह गए हैं . वास्तव में
देखा जाये तो सिर्फ चंद गिनी चुनी महिलाओं को छोड़कर
आम महिला की दशा और दिशा
में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है फिर चाहे वो देशी हो या विदेशी .
विश्व पटल पर महिला कल भी भोग्या थी आज भी भोग्या ही
है सिर्फ उसकी सजावट का
, उसे पेश करने का तरीका बदला है . पहले उसे सिर्फ और
सिर्फ बिस्तर की और
घर की शोभा ही माना जाता था और आज उसकी सोच में थोडा बदलाव देकर उसका
उपभोग किया जा रहा है ,
आज भी उसका बलात्कार हो रहा है मगर शारीरिक से
ज्यादा मानसिक . शारीरिक तौर पर तो उसे विज्ञापनों
की गुडिया बना दिया गया है
तो कहीं देह उघाडू प्रदर्शन की वस्तु और मानसिक तौर पर उसे इसके लिए
ख़ुशी से सहमत किया गया है तो हुआ ना मानसिक
बलात्कार जिसे आज भी नारी नहीं जान
पायी है और चंद बौद्धिक दोहन करने वालों की
तश्तरी में परोसा स्वादिष्ट
पकवान बन गयी है जिसका आज
भी मानसिक तौर पर शोषण हो रहा है और उसे
पता भी नहीं चल रहा .
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