कितने बदल गए हैं
हम,
अब पर्णकुटी जैसा कुछ नहीं रहा
उसके स्थान पर आ गए हैं
कई सारे झोपड़े से महल
जहां इंसान कम
कारोबार के व्यापारी अधिक रहते हैं
उसमें सारे धंधे फल-फूल रहे
शरीर के अंगों का आदान-प्रदान
और
खरीद-फरोख्त के नंगे नृत्य
मांस-मदिरा के छलकते प्याले
आँतों-अंतडियों, आँखों, किडनी सहित
खून के छींटे बेचे जा रहे
यहाँ कुछ भी प्रथम नहीं
सब द्वितीयक है
सारे के सारे लोग
श्रम में व्यस्त हैं
संत-गांठ में मस्त
निर्वाक तरीके से लगे पड़े हैं
उन्हें कुछ भी निरापद नहीं लगता
निर्दय मन से कहते हैं-
उनके अँगुलियों और गदोरियों के लकीरों में
भाग्य की रेखाएं प्रबल तौर पर काम कर रहीं हैं
इसी ने हौसले बक्से
कुकृत्य का एक धुंधला काम
निर्भीक तरीके से गुपचुप चल रहा दृश्य
कुछ को खटकने लगा
निरामिष जन भी अब उसके जद में
अनजाने ही आ गए

 
डॉ सुनीता
सहायक प्रोफ़ेसर
हंसराज कॉलेज, नई दिल्ली
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