तुम
वही माँ,बहन,बेटी हो
जो
अत्याचार सहती हो।
क्या
कभी तुम्हारे अन्दर
प्रतिशोध
नही उठता,
वो
विद्रोह जो प्रतिउत्तर दे सके
क्या
वो भी पैदा नहीं होता।
तुम
अपने बचाव के लिए
क्यों
कुछ नहीं करती,
ऐसा
कोई उपाये
जिससे
तुम्हारा पति,बेटा
तुम्हारी
गोद में सिर रखकर
खूब
रोये…पश्चाताप करे.....।
क्या
तुम्हारी आदत हो गई है
अत्याचार
सहना
या
तुम चिंतित हो
समाज
के उन क्रूर प्रश्नों से,
जो
कभी तुम पर बेटे या पति
से
विद्रोह करने पर उठेगे,
या
शायद तुम यह सोचती हो
की
बाद में तुम्हारा क्या होगा,
जब
न घर होगा,न पति न बेटा।
शायद
तुम्हारी यह चिंता भी सही है
यह
समूचा समाज ही तुम्हें गाली देगा
और
तुम्हारी सहनशीलता को
नकार
देगा,
ये
शाबाशी देगा उस पक्ष को
जहाँ
तुम्हारी आत्मा पर प्रहार होता हो,
जहाँ
रोज तुम्हारे आँचल का सौदा होता हो,
तुम्हारा
पति,बेटा तुम्हें
दुत्कारते हो
जहाँ
तुम पर हर अत्याचार होते हो।
लेकिन
तुम यह सोच कर शांत हो की
जब
तुम्हारी सहनशीलता मरेगी,
तब
प्रश्न उठेगे-कैसी माँ थी?
कैसी
पत्नी थी?
क्या
तुम्हें इन्ही प्रश्नों की चिंता है,
जो
खोखले है।
तुम
इनके लिए अपनी आत्मा पर प्रहार,
अपने
आँचल का सौदा,
अपने
पति-बेटे के दुत्कार
और
हर अत्याचार सह सकोगी?
तुम
धन्य हो,
तुम्हारा
हर स्वरुप धन्य है।
लेकिन
तुम्हारी सहनशीलता उसका क्या
यह
कभी तो जबाव देगी,
क्या
तुम इसे और अधिक मजबूत बना सकोगी?
या
खुद को तैयार करोगी,
विद्रोह
के लिए,प्रतिउत्तर के लिए..........।
अक्षय नेमा मेख
पोस्ट- मेख,
जिला- नरसिंहपुर मप्र
अक्षय जी , आपकी कविता दिल को छु ली ,
काफी कुछ सिखने को मिला आपकी कविता से .
धयनाबाद आपकी बेहतरीन रचना क लिए .
amit ji apka bahut-bahut danybad