नारी जगत जननी रही तू, पर सदा रोती रही
आखेट नर करता रहा अरु, तू फना होती रही|
कर-कर जतन घर को सजाया, त्याग मूरत भी रही|
फिर क्यूँ कसौटी पर हमेशा, बस तू ही चढ़ती रही|
हर दुख उठाने को
हमेशा, तू धरा बन के रही|
हरदम प्रलय सी आंधियों में, नीड़ सी तन के रही|
औलाद की खातिर सदा तू, प्यार ही ओढ़े रही|
अन्याय सह कर भी हमेशा, हाथ ही जोड़े रही|
हरदम प्रलय सी आंधियों में, नीड़ सी तन के रही|
औलाद की खातिर सदा तू, प्यार ही ओढ़े रही|
अन्याय सह कर भी हमेशा, हाथ ही जोड़े रही|
शहनाइओं के धुन बजे
थे, वह सजी दुल्हन बनी|
आई बहू बन सासरे में, आँख का तारा बनी|
सौगात सीखों की मिली
थी,
जीतने
सबको चली|
‘गुड न्यूज’ जो सबने सुना तो, चेहरे खिल से गए
प्यारी बहू के
पाँव-नीचे,
फूल
ही बिछ से गए
शुभकामना ढेरों मिली
थीं,
झोलियाँ
भरने लगीं
सासू ननद नारी गणों
की,
सोहरें
सजने लगीं|
फिर वह समय भी आ गया
जब,
वो
चिकित्सक से मिली
लड़की जनम लेगी जहाँ
में,
जान
कर नफ़रत मिली
सबकी नज़र के भाव
बदले,
वह
कली मसली गई
दोषी कहीं से भी नहीं
थी,
पग
तले रौंदी गई|
कातर करुण सा इक रुदन वो, कोख में चलता रहा |
'मैं क्यूँ न आ सकती जहाँ मैं', प्रश्न भी पलता रहा |
हर बात वो सुनता रहा था, इसलिए ख़ामोश था|
'मैं क्यूँ न आ सकती जहाँ मैं', प्रश्न भी पलता रहा |
हर बात वो सुनता रहा था, इसलिए ख़ामोश था|
बे-होश थे जग के दरिन्दे, भ्रूण, पर, बा-होश था |
चुपचाप वो सुनता रहा
अरु,
बात
को बुनता रहा|
माँ के हृदय के चाप
को भी,
मौन
रह गिनता रहा|
सपने सिसकते ही रहे
पर,
वो
धड़कता ही रहा|
टूटे हुए अरमान के भी, परखचे चुनता रहा|
ऋता शेखर 'मधु'
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