एक लड़की
या
स्त्री
नैहर में आज़ाद
रहती है
या
ससुराल जाते ही
गुलाम बन जाती है
या
नैहर से गुलाम आती
है और
ससुराल पहुंचते ही
आज़ाद हो जाती है
या दोनों जगहों
पर
गुलामी और आज़ादी का
पलड़ा बराबर रहता
है...
क्या यह मामला गाय
नुमा
लड़की/स्त्री पर ही लागू
होता है
या समाज के सभी
तरह की स्त्रियों
पर
यह एक
मनोवैज्ञानिक शोध है य धारणा
यह पुरुषवादी
ढांचे का एतिहासिक
हकीकत है
या सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट का
परिणाम
कुछ खास वर्ग की
स्त्रियों का
मामला है
या सम्पूर्ण
समाज का आईना
यह सिर्फ भारत
का मामला है या
एशिया का
यूरोप का या
अमेरिका का
समाजवादी देशों का
या साम्यवादी
देशों का
एक मुल्क का या
सभी का
अविकसित का या
विकासशील का
या फिर विकसित
राष्ट्रों का
(नोट:
यह लिख ही रहा था कि
अचानक कड़कती हुई
आकाशवाणी हुई.लड़की/स्त्री नैहर में माँ-बाप और भाई के
इशारे पर नाचती है
और ससुराल में उसे सास नामक जीव मिलती है,जिसके सामने होठ पर
टांका लगा का
ताजिंदगी गुजारनी पड़ती है.एक-दो विसंगतियाँ
हों तब न बतायी
जाये...?
यह आवाज़ भी एक
किसी स्त्री की ही
थी,
जिसका ज़वाब हमारे
पास नहीं था,क्योंकि वो स्त्री थी,मैं पुरुष था...?
)
डॉ. रमेश यादव सहायक प्रोफ़ेसर,
पत्रकारिता एवं नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ,
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली.-68
संपर्क : Cell
9999446868
मैं समझता हूँ कि स्त्री की छवि को ससुराल और नैहर की 'स्पेशियल मैपिंग' में नापने की तुलना में हमें उस पितृ-सत्तात्मक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में देखना चाहिए जो स्त्री के लिए हमेशा एक संरक्षक की मांग करता है. इसलिए ससुराल में जो उसे सास नामक जीव मिलती है वह तो पितृ सत्ता का 'एक्सटेंशन' मात्र है.
सहमत !