सोचती
हूँ
क्यों
नहीं है
स्त्री
का कहीं
कुछ
भी......
जिसे
अपना
मात्र
अपना कह सके
न
रूप
न
रंग
न
स्वाद
न
गंध
न
शक्ति
न
सामर्थ्य
आता
है सब कुछ
छनकर
पुरुष दृष्टि से
सीने
से बाहुबल से
या
फिर उच्छिष्ठ होकर
आखिर
कब तक चलेगा सिलसिला यह?
डॉ० गायत्री सिंह
इलाहाबाद
आता है सब कुछ
छनकर पुरुष दृष्टि से
सीने से बाहुबल से
या फिर उच्छिष्ठ होकर----bahut khub
dhanyvad jyoti ji...
bahut acchi kavita hai.
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