बिटिया- चला
ईगो दुल्हिन देख आवल जा काजानि सुनले बानी बड़ी सुग्घर हे.
सब जन खूबअ तारीफ करत हवन. हमह्नों
देख आवल जा तोहरे भाभी के कुछ
देहले भी रहलीं.ओकर पैठी त करे के पड़ी न.कछू
नेग-वोग दे देहिं,नहिं
त बहिन बुरा मनिहअ.ओ समय महंगाई कम रहल ऐसे सस्ता में कुल चीज आवत रहल.जा
कुछ लेके आवा फिर संघे चलल जी.
वो कुल बात शान्ति से सुनती रही.अंदर ही अंदर उबलत भी रहिल कि मतरिया
ये कुल का-का कहत हे..कछु
समझ ना आवत ह...अब इनकार के के समझाई कि ईगो लईकी
दूसर लईकी के का देखि...?
केकरा पल्ले अतना हिम्मत बा माई के मुन्हे लगे के ऐसे उनके उठे पड़ल..
तनातानाते हुए तुरंत बोली,माँ
!
लड़किय ह न त का देखब
हमके ना देखत हउ...!
लेकिन वह अपने बात पर डटी रहीं.उनके
इस बात से मुझे बड़ी कोफ़्त हो
रही थी.फिर भी वह अपने बात पर कायम रहते हुए कुछ और नयी जानकारियाँ देने लगीं.
क्रम से बताते हुए बोलीं...!
बड़ी स्नेह उत्साह से बताना शुरू की बिन रुके...
समाज के तथा-कथित
परम्पराओं के गुण गाते हुए.उनके चेहरे की खुबसूरती भरे गर्व देखने लायक थी.मुखड़े
के तेज को शब्दों में नहीं
बयां किया जा सकता है.ऐसे लग रहा था जैसे किसी बच्चे को उसके मनचाहे खिलौने अचानक से मिल गए हों.जिसकी
उसे उम्मीद न थी.उन्हीं हालातों में से सम्भवतः यह भी था...
पता ह फलाने क पतोहू बड़का शहर क हे.मगर त मजाल ह कोई एक कच्चा जबान सुन ले.बड़ी
संस्कारी हे...
अच्छा...
ओकरे कपारे पर से लुग्गा न गिरे ला.हमेशा माथा ढकल रहेला...
हूँ...
दोनों बुढ़िया-बढ़वा
तर गईलन अइसन बहुरिया पाके.
बहुत खूब...
जै दिन गाँवें रहले दिन-रात
दोनों परानी क सेवा करे ले...
एक बार भी अन्सात-भुसुरात
नाहि...
समय से खाना बनावे ले,देवे
ले
गोड-कपार भी करेले...
वाह...
एतन नाहि गअन-गोरून
के चारा भी समय से देवे ले..
का-का बताईन बड़ी पुन्य कईले रहल हउन दोनों आदमी पिछले जनम में तब त
एतना पढ़-लिखल गुनी,संस्कारी और बढ़िया सोहबत का पतोह मिलल ह...
तारीफ़ के शब्द सुन-सुन
के मन में देखने की इच्छा अन्यास ही प्रबल हो उठी...
फिर दीदी की याद आ गयी.जब
उनको देखने वाले देखहरू आये
थे...खूब लेफ्ट-राईट करवाए थे.
बचवा दो कदम आगे चला...
अच्छा चार कदम बाए चला..
फिर तनी दायें मुड़ जा..
हूँ...
रसोई में पारंगत हाउ..?
कच्ची रसोईयाँ में कि पक्की रसोईयाँ में..?
दोनों में...
बहुत बढियां,बहुत
बढियां
कय में पढ़त हउ..?
जबाब का प्रतीक्षा कईले बिन...
जाएदा ढेरको पढ़ के का करबू...
हमार बचवा बहुत पढ़ले हउन...
तोहरा के घर में रहे के बा...
दीदी के सारे सपने उसी क्षण चार इंच-इधर-उधर के साथ ही ध्वस्त हो गये...
उन हजारों परम्पराओं के नाम जिसे शादी के षड्यंत्र ने दिए हैं...
ह तो बहु की बात हो रही थी...
इस बेमतलब से भरी जानकारी के बात के खत्म होने का इन्तजार कर रही थी कि जब वह अपनी बात खत्म
करें तब हम भी कुछ बात बोलें,लेकिन वह क्यों चुप हों.इतना
तारीफ़ से भरे कसीदें सुन के
अचछे-अच्छों की भी बोलती बंद हो जाए...
खामोश सागर में हिलोर लेते बूंदों के मौन होने की प्रतीक्षा कितनी कठिन होती है.वैसे
ही दिल के अंदर हलचल जारी रहे.यह तारीफों के पुल कहाँ जाके खत्म
होंगे.
मेरे इन्तजार हद के पार हो गये...
पैर पटकती हुई उठके चल दी...
यह धमक माँ के आगे ही दिखाए जा सकते हैं...
उसके बाद सिर्फ यादों में गुन के मुस्कुराए जा सकते हैं...
उनके चुप होने तक...
चारो तरफ पुतलियाँ व्याकुल घुमती रहीं...
मानों सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाने के हड़बड़ी में हो...और
हाली-हाली कदम बढ़ा रहा हो...अपने
इसी अक्तल्ही में शायद सतहवा
को कभी घाट तक पहुँचने ही नहीं दिया...
बेचारा भ्रमणशील प्राणी...युगों-युगों से छटपटा रहा है...
जैसे स्त्री स्वतन्त्रता और स्वछंदता
के भ्रम में ब्रांड के मकड़जाल
में उलझ के रह गयीं..
ऊपर से आज़ादी के शोरगुल के चौंधियाते
शोर में सब भूल बैठीं...
दिमाग में यह सब चल ही रहा था कि
अचानक से वह बोलना बंद कर दीं...
एक पल ठिठकी,बोलीं...
करे लइकी तै हमार एको बात सुनली ह
मंजरी ने...
हामी में गर्दन हिला दिये...
फिर बोलीं..!
मुझ पर तंज की...
कुछ सिखा..आ...
जहाँ जईबू गुण गवाई न...
हर बात पर गर्दन को जहमत देते हुए
हामी में हिलाते रहे...
अचानक से हड़बड़ाते हुए उठे...
पर्स उठाई और बाजार के लिए चल दी...
माँ के निर्देशानुसार एक पायल लेना है.पतला
सा ध्यान रहे महंगाई बढ़ गयी
है.
जब उन्होंने उनके पतोह को दिया था तब सस्ती थी.उसका
मुझे ख़ास ख्याल रखना था.
उनके जानकारी के मुताबिक़ जब उनकी बहु आई थी तक का पायल कुल जमा पांच सौ रुपल्ली का था...
मैंने उस बाजार के सारे सोनार के दूकान के चक्कर मार लिए लेकिन हजार-दो ह्जार से कम का कहीं भी कुछ नहीं था...
पांच सौ का अनुमान तो मुमकिन ही नहीं...
मैंने अपने मन के मुताबिक़ ले लिया...
घर आते ही बोलीं बड़ी सुंदर ह केतने
के ले हउ.
इस बात पर मैं बगले झाँकने लगी.
मरता न का करता साफ-साफ
बताता दिया
पन्द्रह सौ का है.
अतना महंगा...
कुछ देर चुप रहने के बाद बोलीं अब का करबू सस्ती का जमाना खत्म हो गयल...
अब...
एक लम्बी ख़ामोशी के बाद...
वह..!
वहां से उठीं...
अपना कपड़ा बदलने लगीं...
मेरी ओर इशारे से बोली हाली-हाली
मुंह धो ला..
चला मिल आवल जा...
मैं,कशमकश में पड़ गयी...
मैं जाना नहीं चाहती थी...
मेरे सोचने के अपने तरीके हैं...
उस लड़की को देख-देख
कर क्यों संकोच के गहरे समुन्द्र में ठेला जाए.
माँ माने तब न...
पिता जी मेरी हर बात से सहमत होते थे लेकिन इस बार उनकी नहीं चली...
क्योंकि माँ ने उन्हें पहले ही पट्टी पढ़ा रखी थी कि इतना अच्छा लड़की
से मिली त कुछ बढियां सीखे के
मिल जाई...
वाह रे...
दूसरे क बहु पियारी...
अपन बेटी में खोट...
ई हअ माई क करेजा...
बेटी के सर्वगुण सम्पन्न बानवे में काउनों कसर ना छोड़ लीन..
एक माँ-बाप की चिंता बेटी के सम्मान से जीवन बसर करने पर ही गर्वान्वित
होती है.
यह घटना आज भी दिमाग में चलती रहती है...
एक बेटी के माँ-बाप
बड़े ही चिंताओं से घिरे होते
हैं.दान-दहेज़ के साथ ही गुण के अपार सम्पदा के बिन उसका जीवन-जीवन
नहीं माना जाता है...
हूँ अ..
एक लम्बी सांस लेते हुए...
उठ खड़े हुए और चल दिए
अधिक दूर नहीं था.जल्दी
ही पहुँच गये.
जैसे ही हम घर में कदम रखे...
दुल्हन एक लम्बा घूँघट काढ़ते हुए.देहरी से अंदर आंगन को पार करते हुए अपने आरामगाह में चली गयी.
काकी आई पास बैठीं...
बोलीं कब आइलू ह बचवा...
जब आप हमके देखली ह...
हंसते हुए...मजाक मत करा ठीक-ठीक
बतावा...
कल अइल ली...
फिर अपने बहु को बोलीं दुल्हिन
बहिन अइल हईन..
आके गोड घय ला...
वह अपने कमरे से छम-छम
पायल बजाते हुए आई...
माँ का पैर छू मेरे ओर बड़ी...
काकी बोली ई बचवा छोट हई नमस्ते कर ला...
हम दोनों में हाय हलो हुआ..
उसकी आवाज सुनते ही मैं कुछ सोचने लगी
क्या हम मिल चुके हैं...?
उसको कैसा लगा यह मुझे नहीं पता...
वह चली गयी...उसी
गति से छम-छम-छम...
चाय-पानी के साथ फिर वापस आई....
छम-छम,छम...
माँ ने अपने लाये हुए सामान को पानी पिने के साथ ही उस घूँघट के हवाले कर दिया अर्थात लड़की को थमा दिया...
मैंने माँ को छेड़ा बिना मुंह देखले दे देलू ह अ ...
झट काकी ने उसका घूँघट उठा दिया...
जैसे ही निगाहों से निगाहें मिली उसकी आँखें शर्म से झुक गयीं...
मेरा मुंह खुला का खुला ही रह गया...
बड़ी फुर्ती से वह वहां से भाग गयी...
इस बार सास के बोलने का भी इन्तजार
नहीं किया...
आँखों ने महसूस किया कि काकी के चेहरे
के भी रंग उड़ गये..
ऐसे क्यों भागी ऐसा तो कभी नहीं हुआ...?
अनकहे सवाल तैरने लगे...
मैंने बात को सम्भाला उस भौचक ख़ामोशी
को दूसरी तरफ मोड़ दिया.
अरे काकी आप भी का-का
सोचत रह अ नी...
हो सकेला कुछ ध्यान आ गयल हो..
आपही तो उनको बोली हैं कुछ खाए-पिए के बना ला ऐसे भाग गयल हों
कहीं कछु जर न जा...
हा-हा
की तरह वह गर्दन हिलाने लगीं...
अब बुझायल...
फिर भी उनके चेहरे के भाव तनावपूर्ण
थे...
बहुत तारीफ़ का हवा कहीं खराब तो नहीं हो रहा...
इसलिय वह दौड़ते हुए उसके कमरे में गयीं...
वहां सास-बहू में क्या बात हुई हमें नहीं पता लेकिन उसके बाद वह उठकर बाहर आयीं फिर वही छम...
कुछ देर ख़ामोशी...
हम लोगों के पास सिकुड़ी हुई बैठी रहीं...
इन सब नाटकों से उबने लगी...
जिसके तारीफ़ में इतना सूना था वह सब हवा हो गया.
चेहरा वही चरित्र नया देखकर दिमाग घुमने लगा...
उसके सुन्दरता में कोई कमी नहीं थी...
कुदरत की एक अनोखी संरचना थी.बेदाग़
चेहरा लावण्य से चमक रहा था.
बल्कि
माथे पर सजे लालिमा से सौन्दर्य निखर गया था...
मुझे उसके हास्टल के दिन याद आ गये...
तब और अब में कितना फर्क हो गया कंचन में...
उसका असली नाम कंचन था.शादी
के बाद भी कंचन ही है,लेकिन उस कंचन के काया,कर्तव्य
और करुणा में जमी-आस्मां का फर्क था...
अर्श से फर्स का मामला था.
जिनके लिए तारीफ़ के क़सीदे पढ़े जा रहे
थे..
वह अंदर से कितना कोमल हैं..
उनसे बेहतर कौन जनता है...?
इंसान सब कुछ छिपा सकता है.दुनिया
समाज और संस्कार से लेकिन आपने आत्मा के अंदर बैठे सवालों से कभी मुक्त नहीं हो सकता...
ऐसे ही कुछ काले पन्ने उनके चेहरे के आईने थे.जो
मुझे देखते ही धीरे-धीरे लहराने लगे.एक
ऐसे पर्दे की तरह जिसके ओट में कुछ भी दवाये रखना मुमकिन न था...
खैर हम वहां से बिदा हुए.
वह लोग बाहर तक हमें छोड़ने आये.
वह !
कंचन मुझे एक अनोखे नजरों से देख रही थी...
आँखों में अजीब से कसक हिलोर ले रहे थे...
जहाँ दर्द,आंसू,पीड़ा,पश्चाताप और भी जाने क्या-क्या
दिख रहे थे...
एक पल को लगा यह दोखा है...
जो दिख रहा है वह सच नहीं है..
मगर
सच
सच है...
उसमें एक अजीब सा मिन्नत छिपा हुआ था...
ऐसा लगा जैसे उसके दुनिया का रंग मेरे अतीत के पन्नों में बड़े करीने से दबे पड़ें हों...
जो दुल्हन खिली हुई थी.
मुझ नालायक को देखते ही वर्षों से प्यासी नजरों वाली नागिन हो गयी.
मुझे क्या पड़ी थी गड़े मुर्दे उखाड़ने
की...
किसी के बसे-बसाए
संसार में आग लगाने की...लेकिन महिलायें युधिष्ठिर के शाप से कब मुक्त हुई हैं जो अब हो जातीं..
उनके पेट में पानी कहाँ पचता है.
यहाँ-वहां मुंह मारे बिन...
एक-दूसरे के कानाफूसी करने से कहाँ कतराती हैं...
मंजरी के साथ भी ऐसा ही था.
घर आते ही शुरू हो गयी...
बिलकुल..
नाना स्टाप...
जिस बहु की तारीफ़ में आप सांस लेना
भी भूल गयीं थी.उसका इतिहास भी मालूम है...
चौकने की बारी माँ की थी.सवालिया
नजरों से देखने लगीं...
मंजरी बोले-तो-बोले क्या और कहाँ से शुरू करे..
दिल-दिमाग में जंग रस्साकसी शुरू हो गयी...
अंत से या शुरू से शुरू...
उलझे-उलझे आँगन के कई चक्कर काट ली...
उसके इस हरकत से माँ-बाप
उसे गौर से देख रहे थे.
उसके बाद उसने जो बताया वह वास्तव में चौकने वाले थे...
आप जिस बहु की तारीफ़ कर रही हैं..
दरअसल
वह एक बार में काम करती है.शराब
पीती है.लड़कों को बेवकूफ बना कर/प्यार
का नाटक करके पैसे ऐठती है...
आप जिसे सामाजिक कल्याणकर्ता के नाम से जानती हैं.वह
नीचे से ऊपर तक अपने स्वार्थ
में डूबी हुई हैं.
हा !
इसमें कोई शक नहीं है कि पैसे वाली है.
जिसे आप संस्कारों का पुतला कह रही हैं.
वह नंगे शहर के सड़कों,गलियों,चौराहों और चौबारों में व्याकुल आत्मा की तरह भटकती है. मुझे
नहीं याद आता की कभी इसने
जींस,टाप और कटे-फटे
कपड़ों के अतिरिक्त कुछ और शरीर पर डाला है...
यह शहर का वस्त्र है...
गाँव का परिधान नहीं...
आप जिस संस्था का नाम ले रही थीं..
क्या बताया ‘उत्थान’
उस उत्थान के
साए तले/नाक के नीचे से लड़कियां चुरा /बहका-फ़ुसला और नशे का आदि बनाकर देश-विदेश
में सप्लाई/बेचीं जाती हैं.
माँ !
क्या-क्या गिनाऊं माँ...
कब शादी हुई है...?
दो महीना...
कोई बात नहीं दो साल का इन्तजार करिए सच अपने आप आँखों के सामने
आ जाएगा.
मैंने जो कुछ बताया किसी और के सामने
कभी गलती से भी न बोलिएगा...
एक लड़की के भविष्य का सवाल है.हो सकता है अब उसने सब कुछ छोड़ दिया हो.या
प्रायश्चित कर रही हो...
अनुमान के आग में जलते हुए किसी का घर
नहीं तोड़ना/जलाना चाहिए.
इतना बोलते हुए...
मैं घर से बंगले पर आ गयी...
मेरे घर से निकलते ही काकी आ गयीं.मुझे खोजते हुए.
मुझे बुलाया गया..
काकी बोलीं बचवा महार लड़िका कहन तोहसे बात करे के...
ह काकी बोला का कहथू...
बचवा तुहूँ त शहर में रहलू न..
ह...
का हो गइल...
कुछ काम बा...
ह बचवा...!
सही-सही बतहिया हमार बहुरिया तोहके देख के काहें डर गईल हे...
डर गईल ह...
हम भूत-बैताल हई का...
अरे नाहि..
तो लोग भी न...
कोई के शान्ति से रहे ना देवे लू जां...
इनके कहले ह कि हम न जाईब त पिछहिन पड़ गईलन ह...
अब तू..
अरे काकी ऐसन कौन बात न ह पहली बार
मिलनी ह न थोड़ा शर्मात रहनी
ह..
नाहि बचवा उ सबसे बड़ी परेम से बोले ले..
तोसे कछहू ना बोलल से...
हमार बचवा बता दा का बात ह...
तोहरे साथ पढ़त रहल हे न...
नाहि काकी एक हास्टल में रहत रहली हा जान..
उ हमसे बहुत बड़ हइन..दो
क्लास आगे रहलिन...
उनसे हमार का तुलना...
ठीक ह..
चिंता न करा...
बहुत सुग्घर बहुरिया पउले हउ...
ओकरा साथ ला आनंद ला..
बेकार का क खोदाई करत हऊ...
हम त माई से कहत रहली कि हम न जाब,लेकिन ई काहे के मान...
ले गयीं ह..
देखा आपका पतोह डरा गइनि..
हमारा ऐसन शक्ल-सुरत
ह...
केहू डर जा..
चला हम फिर कभों उनकारा से मिल लेब
ठीक बा..
अब तु माई ला बात करा हम घुमे जात
हई..
जान बची लाखो उपाय...
भाग खड़े हुए...
लेकिन
अब भी सुई वहीं अटकी हुई थी...
अभी भी इसका काम चल रहा है...फिर...
मेरे बला से...जैसी
खेती वैसी मति...
बात को झटक थोड़ी...
खुद से उलझते रहे...
लेकिन
जीवन की मूल
गुत्थी सिरे से उलझ गयी...
ठीक वैसे ही जैसे स्त्री की आजादी और बर्वादी की अनसुलझी कड़ी का सिरा हाथ नहीं लगने की तरह...
दिल में एक हुक सी उठी..
उस याद में..
जिसे मैंने उसके लिए छोड़ दिया..
उसने उसे पागल हो जाने के लिए छोड़ दिया...
क्योंकि....
उसे प्यार नहीं रोकड़े की भूख थी...
जो कभी नहीं मिटी...
आज एक मुर्गा फिर हलाल हुआ...
या मुर्गी ठीक जगह पहुंची...
पता नहीं जो हुआ...
बेहतर है...
सोचते-सोचते
हौले-हौले बढ़ लिए
कभी न लौटने के लिए...
इस चेहरे के आने से किसी का भूत,भविष्य और वर्तमान सब डोल सकता है..
ऐसे भयानक यादों के पर्दे-पर्दे
में ही रहें तो अच्छा है...
आगे बढ़े कदमों को फूलों से भरने में ही बुद्धिमानी है..
मेरे एक शब्द से वह काँटों में तब्दील
हो सकते हैं..
ऐसे शब्द अन्तरिक्ष में गूंजते रहे तो...
समय सब उत्तर दे देगा..
यही गुनते हुए..
उस जाल बिछे तालाब को वहीं छोड़ दिया और हमेशा के लिए हाथ में लगे कीचड़ को पोंछ लिया...
ताकि अंगडाई लेते रुतों के साथ सुखमय जीवन जी सकें...
कब ऐसा सोचा था कि एक दिन हम टकरायेंगे
और अनकहे अतीत अपना जबाब खुद ही उगलवा लेंगे...
ई दुखवा कासे कहीं..
हे सखी...!
डॉ० सुनीता, नई
दिल्ली
sunita ji vyathaa tathaa katha sundar Saamanjasy