आज़ाद
हो गए पुरुष
पराधीन
रह गयी स्त्री
वृत्त
के प्रकाशमान होने से
आधी
दुनिया में आया उजाला
आधी
दुनिया के हिस्से अँधेरा
आधी-आधी
है हमारी दुनिया
तुम्हारे
बिना हम अधूरे
हमारे
बिना तुम पूरे नहीं
फिर
हमारे सुख- दुःख
साझे
में क्यों नहीं ?
हमारी
पीड़ा तुम्हारे लिए महत्वहीन
तुम्हारी
अंगुली की ख़रोंच
भी
'आँचल'
फाड़ने को करती है मजबूर मुझे
महसूसते
हो तुम भी
अपने
अन्दर का अकेलापन
पर
नहीं चाहते स्वीकार करना
हाथ
थामकर भी नहीं चाहते
हाथ
थामे आगे बढ़ना
दुनिया
के बनाये सारे नियम
क्या
तुम पर भी हैं भारी ?
या
तुम आदिम मानव हो
आज
भी
जो
चाहता है सभ्य कहलाना
पर
नहीं चाहता
सभ्य
होना
संस्कृति
की वाहक बनी मैं
घिरी
हूँ जड़ दीवारों से
जहाँ
न संभव है स्वभाव
न
स्वतंत्रता, न ज्ञान
फिर
जीवन बचा कहाँ ?
भटकते
अपने वृत्त के अँधेरे में
तलाशती
हूँ तुम्हारे वृत्त का प्रकाश
आओ
साझा कर लें
अपने-अपने जीवन
अनुभव
और
अकेलापन भी
यथार्थ
की रोशनी
बाँट
भी दे पुनः
दो
भाग में
मगर
दीया हृदय
का
जलता
रहे साथ-साथ
और
हम बने रहें
साथी
जीवन भर के
सही
मायने में।।
डॉ गायत्री सिंह
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिंदी में
परास्नातक एवं पी एच डी
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
संपर्क : एम आइ जी -2 न्यू ए डी ए
कॉलोनी, मम्फोर्डगंज ,इलाहाबाद -211002
e-mail : singhgarima26@rediffmail.com
एक टिप्पणी भेजें