हमारी
नायिका बाग में नहीं मिलती
वह अक्सर
मिलती है गोरू चराते
दिखती है
खेत में धान रोपते
खिलखिलाती है
खलिहान में गेहूँ काटते
मुड़मुड़ मुस्कुराती है
कुआं से निकालते पानी
इठलाती है
पशुओं को डालते हुए चारा
बहा देती है
हमारी तरफ
अपना दुपट्टा
नदी
में घाट पर
और
हौले से
घूमा देती है
नज़रें
पूरब से पश्चिम ....

 
डॉ रमेश यादव
सहायक प्रोफ़ेसर
इग्नू, नई दिल्ली

2 Responses
  1. जीवन की सच्ची नायिकाएं मिट्टी को चीरती हुई,भविष्य के निर्माण में व्यस्त हैं. उनके अंदर सौंदर्य को तलाशने वालों की संख्या न के बराबर हैं.यह कविता इस दिशा में एक नये मिथक को गढती प्रतीत हो रही है.
    मेरी प्रिय नायिका...नाहक ही परेशान नहीं है बल्कि भारतवर्ष के सुनहरे अन्न उपजाने से सृष्टि संचालन तक अपने कर्मपथ पर तल्लीन है..
    सादर...!


  2. धरती की नायिकाओं की गाथा को जीवंत रखने में 'मधेपुरा टुडे' अग्रिम भूमिका अदा करेगा...
    इसी उम्मीद के साथ !

    भाई राकेश जी को आभार !


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