मानवता हुई है फिर से शर्मसार
करके सारी हदों को पार,
कुछ तो अच्छा तुम करम करो
शर्म करो !शर्म करो !शर्म करो !
सामने आई फिर इक नयी कहानी
मसला बचपन लुट गई जवानी,
थोडा सा उनपर अब रहम करो
शर्म करो !शर्म करो !शर्म करो !
नन्ही जान को फिर यूँ मचोड़ दिया
जलने को जिन्दगी भर छोड़ दिया,
वासनाओं में खुद को न इतना गरम करो
शर्म करो !शर्म करो !शर्म करो !
तुम अंधे थे और तुम नंगे थे
बद्तमीज, बेशर्म और गंदे थे,
इसमें उस नादान की क्या गलती थी
जिसका जीना तूने हराम किया और
मानवता को फिर से यूँ बदनाम किया,
तूने उसके पंखों को मसल दिया
जो उड़ने के सपने देखा करती थी,
शर्म करो !शर्म करो !शर्म करो !
कुन्दन मिश्रा (9534571966)
kundanmishra2013@gmail.com
संत नगर ,वार्ड -15,सहरसा
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