दीदी अस्पताल से घर आ गई हैं ...चार कंधों पर सवार ..घर की दहलीज से कमरे तक का सफर भारी  हो रहा है ,...कमरे का सन्नाटा अचानक महिलाओं- बच्चों के रुदन से गूंज उठा ,--आज घर की मालकिन .लक्ष्मी --चली गई ..पर अपने पीछे यादों का एक लम्बा काफिला छोड़ कर ...घर -आंगन में बिताये पचास वर्षों का के संग साथ ...गृहस्थी के के सुख दुःख .हर्ष -विषाद  के पलों को आत्मसात करती हुई--वृद्धावस्था तक कासफर आज पूरा कर अपने अंतिम यात्रा पर चल पड़ीं ....उनकी शांत मुख मुद्रा मानो कह रही हो --''लो सम्भालो अब अपना घर-बार ..मै तो चली ''..............बिलख रही हैं बेटियां ...रो रही हैं बहुएं ..--''हम तो नहीं थके माँ ..आपकी सेवा करते ..पर आप क्यों चली गईं ?''....कौन सुनता ?...और कौन झिड़कता --''ये बिना मतलब का शोर गुल काहें लगा रखा है रम्भा ?''...
अचानक रम्भा सहम  कर चुप हो गई -''अभी सब तैयारी तो उसे ही करनी है ...पर क्या करे ..कैसे करे ?..कौन बतायेगा ?..अब तक तो माँ ही सब सम्भालती रहीं ..बताती थीं ..घर खानदान ..के सारे नियम, संस्कार ..पर अब क्या ?...सभी हतप्रभ खड़े हैं ..सभी चाचियाँ ..बुआ जी .बेटियां ...सबकी अपनी अपनी राय ..अपने अनुभव ,.
''अरे रम्भा ..घी लाओ ..और चन्दन भी .लेप करना पड़ेगा '' .रम्भा उठ कर चली ही थी कि बुआ जी ने टोका--''फूलों व् नई  साड़ी के लिए बोल दिया हैं विपिन को ?'' रम्भा सिर हिलाती  चली गई ...
.दीदी वर्षों से बीमार थीं ..जीजा जी के जाने के बाद तो और भी कमजोर हो गई थीं ..किडनी ..हार्ट
.लीवर से जुडी कौन सी बीमारी थी जो उन्हें नहीं थी ...पर दिल से अपना हौसला नहीं टूटने दिया था दीदी ने ,..सबको सम्भाला था बेटे ..बहुओं ..घर गृहस्थी --लेंन  देन ..संस्कार -परम्पराएँ ..सब .....
किसी पड़ोसिन ने टोका --''इनका सिंगार भी तो करना है ''....छोटी बहु मीनू चौंक उठी -''नहीं नहीं ..माँ तो विधवा थीं ......सिंगार नहीं ''.....हाथों पर चन्दन लपेटती नाउन बोल उठी -''चूड़ियाँ  लाओ -कांच वाली ''अबकी रम्भा ने कड़ा प्रतिवाद किया--''नहीं ..वो सब नहीं होगा ''
बेटियों का दर्द और पीड़ा कुछ दूसरी ही थी ..माँ के जाने के बाद ..उत्पन्न असुरक्षा का भय उन्हें सता  रहा था , --गाहे बगाहे जरूरत पड़ने पर माँ चोरी छुपे उनकी मदद कर देती थी। पर अब भाभी कितना साथ देंगी ....उनके आंसुओं में शंकाएं भी थी ..और भय भी ...बड़े दामाद जी और बड़ी बेटी संध्यायह अभिव्यक्त करने में कोई कमी नहीं  की माँ से उनका लगाव सबसे ज्यादा था ...सबसे ज्यादा सेवा उन्होंने ही की थी .........किसी ने बाल मुंडाए तो कोई बढ़ चढ़ कर सारी व्यवस्था सम्भाल रहा था ...सब दिखावे और प्रदर्शन के लिए अपनी अपनी संवेदनाएं दांव पर लगा रहे थे ...फोटो ग्राफर के आगे .दीदी से सट  कर रोआंसी मुद्रा में तस्वीरें खिंचवाने की होड़ सी लग गई थी ...मै आंसुओं में डूबी सोच रही थी कि --''सुना था कि दुःख संक्रामक होता है ...पर क्या दुःख समवेदन विहीन और दिखावा मात्र भी होता है ?..यह आज ही देखा था .मुझे दीदी की बहुत याद आई ...इस पल वो होती तो बिना  किसी लाग लपेट के ..न इस पार सोचतीं ..न उस पार .बीच का रास्ता निकाल  लेतीं  --'' जो है ..वही रहने दो ''..मेरी आँखें भर आई .
औरतों की कीच पिच जारी थी .. तभी विपिन के दोस्तों ने मोर्चा सम्भाल लिया ....माथे पर चन्दन ..अबीर सजा ..फूलों का श्रृंगार कर -साध्वी बनी ..दीदी को ले सभी चले गए --महिलाओं का रुदन शांत हो चुका  था ..शेष बची सामग्रियों को हटा दिया गया ..घर धुला ,....अब स्नान की बारी  थी ..रम्भा ने बुआ जी से पूछा --' बुआ जी !..आज तो सब साथ ही नहायेंगी न ?''
--''पता नहीं बहुरिया ,...मुझे तो ज्यादा याद नहीं आता ,लेकिन भैया के समय तो ....'' बुआ जी की बात पूरी होने के पहले ही पड़ोस वाली चची जी बोल उठीं --'' हाँ हाँ ..शर्मा जी के समय का तो मुझे भी याद आता है ..सब घर ही जाकर नहाई थीं ''....
रम्भा ने मंझली सास की ओर प्रश्न वाचक निगाहों से देखा ---''मुझे भी याद नहीं आता रे ''..तब छोटी बहु ने ही हल निकाला -''अगर नहाना ही है तो यहाँ भी थोडा सा पानी शरीर  पर डाल कर अपने अपने घर जाकर फिर से नहा लेंगे '' --ऐसा ही किया गया क्योंकि बहस करने का कोई फायदा भी नहीं था ....जो दीदी  जीवन भर नियमो   ..कायदों, परम्पराओं  को ढोती   रही थीं  आज उनके अंतिम कर्म कांड  में जैसे  तैसे  परम्पराएँ  निभाई जा  रही थीं  ,..शाम को फलाहार था सबने अपने अपने हिसाब से किया, परेशानी बच्चों के खाने की थी ..लेकिन दीदी के पड़ोसियों ने अपना
अपना धर्म निभाया और ढेर सारा खाना भेज दिया ..,वह रात ..चुपके से उलझनों ..नियमों ..सामाजिक कानूनों में डूबी सी बीत ही गई।।विपिन ने संस्कार के सारे कर्मकांड निबटाये थे ..अतः रम्भा को ही उसके खाने की व्यवस्था संभालनी  थी, बाकी  सब कुछ  औपचारिक  चल ही रहा था  ...बड़ा परिवार था   ..सबके घर पास  पास ही थे अतः बगैर किसी  विशेष हंगामे के सारी क्रियाएं पूरी हो रही थीं. पंडित जी ने बताया था कि दस दिनों तक साबुन -तेल ..नहाना ,बाल धोना ,,कपडे धोना वर्जित है --लेकिन स्नान सभी करते थे---------शाम को सभी एकत्र होते गरुड़ पूरण सुनने के लिए --रात का भोजन वहीँ बनता ..पर सभी बहुएं  ..चाचियाँ  बेटियां एक दूसरे को अविश्वसनीय नजरों से देखते कि कहीं उसने ये नियम तो नहीं तोड़े हैं ..
--''आपके कपड़े बड़े साफ लग रहे हैं भाभी ..धोये क्या ?''..बुआ जी आदतवश बोल पड़ीं ..
--''कैसे धोयेंगे ?..जब धोना ही नहीं है तो बाथरूम में ही छोड़ देते हैं ..बहू साफ करती है ''...भाभी ने मोर्चा संभाला-..पर बुआ जी कहाँ चुप होने वाली थीं ,उनकी बहू  वहीँ बच्चे को सुला रही थी ..पूछ ही लिया --''क्यों दिव्या ?'' ....वह सकपका गई --''नहीं तो ?''
सबने राहत की सांस ली पूरे परिवार ने एक तरह से परिस्थितियों के आगे समर्पण कर दिया था. या यों कहें कि एक अघोषित समझौता ही था -जिसे सब निभाए जा रहे थे --दीदी ने कभी जिन्दगी से समझौता नहीं किया था -बस फैसला सुना देती थीं ...सामने वाला कोई भी हो ..वह निडरता से अपनी बात कह डालती थीं ...जब जीजा जी नहीं रहे थे तब भी दुःख व् वेदना से शिथिल होकर भी ...एक भी नियम और परम्परा को लीक से बेलीक नहीं होने दिया था उन्होंने ..और अब तो वर्षों का अन्तराल था और पीढ़ियों का अंतर भी आ गया था .....'
शोक संतप्त परिवार के भोजन में अब चटनी   ..सलाद  ..रायता  .पापड़ जैसे चीजें भी शामिल हो गई थीं ..ठीक भी था --डायबिटीज की मरीज मंझली भाभी चावल कैसे खा सकती थीं ?..अतः उनका दूसरा विकल्प ढूंढ़ लेना भी जायज था ..रोटी नहीं बनानी है तो ब्रेड ही खा लेंगे ..तेल -हल्दी का प्रयोग नहीं करना तो रेडीमेड मसालों  से काम चल जायेगा ''...मै बस दीदी के परिवार में आ रहे अनोखे बदलाव को देख रही थी -जब तक वे जिन्दा थीं -- थी कि कोई कुछ बोल दे या कर दे पर आज वे नहीं हैं तो सबकी अपनी अपनी राय -मत --फैसले ..समझौतों का शिकार हो नई  नईपरम्पराएँ  गढ रहे थे
बालकोनी में कुर्सी पर बैठी ..चुपचाप रम्भा उदास थी ..मै उसके पास जाकर बैठ गई -सांत्वना भरा हाथ उसके सिर पर फेरा तो उसकी आँखें भर आईं ---''मै कैसे सम्भाल़ूगी सब मौसी जी  ?..सब कुछ नया नया अपनी मर्जी से हो रहा है ''..
--'' कुछ भी नया नहीं है रम्भा ...जब नदी की बाढ़ आती है तो अपने साथ कुछ नई मिट्टी लाती है और उपजाऊ मिट्टी को साथ बहा ले जाती है ...ये दुःख भी नदी का बहाव है --कुछ नियम टूटते हैं ,तो कुछ बनते भी हैं --हर आने वाली पीढ़ी कुछ नया जोड़ेगी ..नई परम्पराओं की नींव पड़ेगी ही ..यही तो विकास है ..सोच और पीढ़ियों का बदलाव है --इन्हें तर्क की कसौटी पर मत कसो ....जो हो रहा है -होने दो -दीदी होती तो ऐसा ही करती ''.
रम्भा का अशांत मन शांत हो चुका था ..परिवार में परम्पराएँ टूट रही थीं पर कुछ नई और अच्छी सीख भी दे रही थीं --संवेदनाओं के नए प्रतिमान बन रहे थे ..!



पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर
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