सूरज जब सो जाता हैं,
स्याह काली चादर ओढता है शहर,
होता है जब निशाचरो का बोलबाला,
देता किसी को आस,
नन्हा सा टिमटिमाता दिपक,
अंधियारी रात से लडता तो हैं।

तूफानी रातो में,
अंधेरी बरसातो में,
झकझोरती हैं हवा,
हर कोई तैयार हैं,
दीपक की लौ बुझाने के लिये,
सबकी साजिशो से,
अपने अस्तित्व को बचाने के लिये,
नन्हा सा टिमटिमाता दिपक,
तूफानों से लडता तो है।

झूठे दंभ का देख बोलबाला,
सिसकती हैं सच्चाई,
अठ्ठास करता है निरंकुशता का शासन,
रोता हैं स्वाभिमान,
आदर्श प्रकाश का नन्हा सा टिमटिमाता दिपक,
अराजकता के अंधकार से लडता तो हैं।

घेरती हैं मन अमावस,
निरूद्येश्य, निरर्थक, लगता है जीवन,
क्षंणभंगुरता जीवन की,
आ-आ ताने देती हैं,
अज्ञानी अंधकार को दे-दे चुनौतिया,
ज्ञान का नन्हा सा टिमटिमाता दीपक,
उससे लडता तो हैं।

लुभावने आवरणों में लिपटे,
मेरे सामने आते हैं छलावे बार-बार,
मोह आकर्षित करता हैं,
छले जाने के लिये हॊता हैं
मन तैयार,
मुझे रोकने के लिये,
मेरी आत्मा का नन्हा सा टिमटिमाता दिपक,
मोह के अंधकार से लडता तो हैं बार-बार॥



निशा मोटघरे
औरंगाबाद, महाराष्ट्र 
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