मुझे नहीं
पता रास्ते कहाँ से
शुरू होते
हैं और कहाँ पे खत्म,,
नहीं पढना
मुझे किसी
शहर के
नक़्शे की किताब ,,
मैंने तो
सजा दे रक्खी है
अपने क़दमों
को चलते रहने की ।
जानती हूँ
चल पडूँगी जिस राह पे ,,
वो कहीं
तो ले जाकर छोड़ेगी मुझे ।
पीठ पर
न बोझ खवाबों का ,,
न हाथों
में उम्मीदों की झोली ।
बस कदम
चस्पां हैं
धूल सनी
पगडंडियों पर
और नज़रें
दौड़ती हैं दूर ,,,
दूर बहुत
दूर ।
क्योंकि
जानती हूँ मैं ...
हर रास्ते
के पहले सिरे पर
मुश्किलें
होती हैं और
दूसरे सिरे
पर मंजिल ।
हाँ ,,,,
हर रास्ते
की किस्मत में
जरुर होती
है एक मंजिल ।
कल्याणी कबीर, जमशेदपुर
एक टिप्पणी भेजें