अस्थियों से हैं घिरे केदार
देव भूमि में हाहा-कार
प्रकृति का यूँ कहर है बरपा
असंख्य मौत में लोग है तड़पा
हंसी-खुशी जो निकले घर से
लौट सके न वो फिर तन से
सचमुच रूद्र बन गए हैं काल
किस लिए नेत्र हुए हैं लाल
अधम हुई है मानवता
विकराल हुई है बर्बरता
अनन्त काल से ही कुछ मानव
करता है अपराध- उपद्रव
चरित्र-चिंतन और व्यवहार
मनुष्य ने किया केवल खिलवाड़
प्रकृति की कोमल हरियाली
जंगल कटी- मिटी खुशहाली
बादल फटना बारिश होना
नदियों में बाढ़ों का आना
ये कुदरत की विनाशलीला
अनगिनत जीवन को छीना
जो प्रकृति थी जीवनदायी
अब हुई है वो दुख-दायी
सुरसरी की निर्मल वो धारा
रौंद दिया सपनों को सारा
पहले हम यही थे सुनते
शिव है जटा में गंग समेटे
अब शिव हैं गंगा में लेटे
पृथ्वी का हर पाप लपेटे
या शिव में कुछ शक्ति नहीं है
या जग में कुछ भक्ति नहीं है
शायद कलयुग हुआ शेष है
धर्मयुग का हुआ प्रवेश है
किससे कहें किसको समझाये
दर्द-पीड़ा जो मन को सताये
देवभूमि में जो हुए समर्पित
नयन-नीर उनको है अर्पित
ये विनाश इतिहास बनेगा
याद में उनकी अश्क बहेगा


भारती दास
गांधीनगर,गुजरात.
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