'हैं सुप्त हुए रजनीचर रमयक,
लखि मोहक पुंज प्रकाश की !
हैं छिप गये तरु-विटप भी ,
तकि विद्रोहक कुंज आश की !!'
'हैं लुप्त हुए चंचल चकोर सब,
करि परख तम अब जात है !
हो व्यथित गये सुन्दर सरोज,
फिरि जान अब प्रभात है !!'
'हैं छिप गये मरु के वो जीव,
जो निशा मे विचरण करते हैं !
हैं हुये उदास वो कुसुम सभी,
जो तम दिशा मे विचरण करते हैं'
'अब है गयी निशि बीति बोझिल,
प्रकीर्णित हुइ किरणें रवि-राज की !
अब हो गये हैं पल वो कल ,
जो चाह थे कल आज की !!'
'हैं खिल गये प्रिय प्रसुन अब,
विहग करते किलोल निज आवाज की !
अब है गयी निसि बीति बोझिल,
प्रकीर्णित हुयी किरणें रविराज की!!'
अब हैं गयी फिरि पंक्ति ओझिल,
प्रदीप्त हुयी किरणें 'कवि-राज' की!!
'चेतन' नितिन राज खरे 'चित्रवंशी'
Mo.- 9582184195
सुद्नर रचना है
http://srishtiekkalpana.blogspot.in/