जबसे मैंने होश संभाला है और पानी सोच-समझ को बिना
खोंच-खरोंच लगाए दुनियां के रंग-ढंग की पड़तालों में लगाया है; न जाने कितने
लम्पटों की सूची तैयार हो चुकी है.
बतौर एक
अधिवक्ता, प्राकृतिक-अप्राकृतिक यौनाचार की तय धाराएँ क्रमश: 376 और 377 भादवि का
पोस्टमार्टम होते देख आँखें थक चुकी हैं.
कुदरत
की सत्ता को धता बताकर मरहूम माइकल जैक्शन ही नहीं साधू-संतों से लेकर बड़े-बड़े
नेताओं और अभिनेताओं की खबरी चर्चा बंदा खुद अपने कानों से सुना है और चश्मा लगाकर
अपनी आँखों से पढ़ा है.
जिस दिन
ओबामा के अमेरिका के कैलीफ़ोर्निया की एक अदालत ने समलैंगिक विवाहों को मंजूरी दी
थी, उसी दिन पॉप स्टार लेडी गागा ने ‘गे प्राइड’ रैली में भाग लेकर मंच पर चढ़कर समलैंगिकों, उभयलिंगों और
ट्रांसजेंडर के समर्थन में एक भावुक भाषण तक दे डाली.
लेकिन ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ की अवधारणा कुछ अलहदा किस्म की
है. जैसे नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की राजनीति. ना-ना करते प्यार तुम्हीं से कर
बैठे फिर हाँ-हाँ करते तकरार तुम्ही से कर बैठे. खैर, राजनीति तो अव्वल दर्जे की
ओछी चीज है.
हां,
बाते हो रही थी ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ की. अपने देश महान भारत में अति
प्राचीन काल से यह अवधारणा जीवित आ रही है, लेकिन एक अदालत ने इसे अवैध करार देकर
आस्तिकों की आशा पर एक करारा झटका दे डाली है. भला समाज से क़ानून बनता है या क़ानून
से समाज !
अमेरिका
की अदालत अब जिन्दा बिल्ली निगल सकती है तो अपनी भारतीय अदालत एक जिन्दा चूहा
निगलने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा सकती.
इन्द्रदेव
की दरबारी स्वर्गीय अप्सराएं- उर्वशी, मेनका, रम्भा क्या थी ? कृष्ण की सखियाँ-
गोपियां अभी भी लोक कथा को जीवंत रूप प्रदान करती है. सहचरों और सह्चारियों के बीच
दीवार बनकर खड़ी ये अदालतें क्या सन्देश दे रही हैं?
जो
पारदर्शी चड्ढी-बनियान, सेक्स, सिगरेट और सिनेमा-शराबों के उच्छृंखल विज्ञापनों की
ओर कभी आँखें उठाकर नहीं देख सकती, भला चरमानंद-परमानन्द पर पाबंदी लगाकर सहृदयों
के ह्रदय पर शायद हथौरा बरसाया है. क़ानून को इतना असंवेदनशील होने की जरूरत भी या
थी !
पी० बिहारी ‘बेधड़क’
कटाक्ष कुटीर, महाराजगंज
मधेपुरा.
एक टिप्पणी भेजें