हे संभ्रांत साथी
सच सच बतलाना,
कितने दिन हो गए ?
खुले आसमान के नीचे बैठे ?,
खुले आसमान के नीचे बैठे ?,
उड़ती चिड़ियों का
झुण्ड देखे
इत्मीनान की सांस लिए ,
इत्मीनान की सांस लिए ,
पसंद की कोई
किताब पढ़े ?
कितने दिन हो गए ...
कितने दिन हो गए ...
कोई गीत
गुनगुनाये ?
घडी की सुइयों को अनदेखा किये ...
घडी की सुइयों को अनदेखा किये ...
सच सच बतलाना
कितने दिन हो गए ?
क्या घर ,संतान माँ बाप की जरूरतों ,
क्या घर ,संतान माँ बाप की जरूरतों ,
बैंक के क़र्ज़
....और तमाम बिलों की अदायगी में ही ,
तमाम हो जायेगी तमाम ज़िंदगी ?
साथी सच सच बतलाना ......
तमाम हो जायेगी तमाम ज़िंदगी ?
साथी सच सच बतलाना ......
डॉ सुधा उपाध्याय, नई दिल्ली
quite beautiful poem ma'am, and brilliant lines that very well depicts the situation of everbody's busy life...quite touching lines ... :)