एक दिन 'माँ' से एक बढ़िया कहानी सुनाने की ज़िद की.
'माँ'
ने कहाँ अब कौन सी कहानी सुनाएँ बेटा ! एक था 'राजा' और एक
थी 'रानी' की कहानी तो अब सुनाने से रही....लो एक नयी कहानी
सुनाती हूँ... ब्रितीनी ग़ुलामी के साथ जब राजाओं का राज खतम हुआ, उसी समय लोकतंत्र आहिस्ता से प्रवेश किया... अचानक राजाओं को
लोकतंत्र से मोहब्बत हो गयी.कईयों ने भेष बदले.राज नायक से जन-नायक में तब्दील हो गये... उनके प्यादगीर भी उनके
साथ हो लिए...जिनके दादा-परदादा अंग्रेज़ों के नाम की कंठी पहने, उनकी वफ़ादारी में अव्वल रहे, एक दिन लोकतंत्र के रंग बिरंगे झंडों पर सवार होकर शहर-शहर, क़स्बा-क़स्बा, गाँव-गाँव पहुँचने लगे...
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फिर क्या
हुआ ...? हुआ क्या ...?
जैसे
राजतंत्र में कुछ घरानों का राज चलता था, वैसे ही लोकतंत्र में कुछ घरानों ने क़ब्ज़ा करना शुरु किया, बाक़ी जो बचे, इन घरानों के नाम पर अपना घराना भी शुरू किये ... अच्छा माँ ! जैसे सिंधिया घराना, गांधी घराना,मुलायम घराना, सोरेन
घराना,करूणानिधि घराना, शेख-फ़ारूक़ घराना, मुफ्ती घराना, बादल घराना, चौटाला
घराना......
अचानक 'माँ' ने डाँटा चुपकर घरानों का नाम इस तरह नहीं लिया करते....!
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फिर कुछ
देर चुप रहीं...बोलीं ... ग़ुलामी के वक़्त जिन घरानों में आज़ादी, ग़ुलाम थी, आज़ादी के बाद अधिकतर उन्हीं घरानों में हमारी आज़ादी तिरंगे के
नीचे ग़ुलाम हो गयी, अलग-अलग रंग-रूपों में.... एक ही घराने में माँ-बेटे
दो अलग-अलग रंग धारण कर लिए, एक
केशरिया, दूसरा तिरंगा...
हमने
पूछा तिरंगा
क्यों ? वह तो राष्ट्रीय झंडा
है.
'माँ'
हंसी बोलीं तुम अब सयाना हो गया है...ऐसे ही ये लोग भी
थे.... आज़ादी की लड़ाई में बहुतेरे लोग और संगठन शामिल थे, लेकिन अंग्रेज़ों से लड़ते हुए भी यहीं एक मात्र पार्टी थी, जो उनकी प्रिय थी... ? 1947 के बाद देश को ये अपनी बपौती मानने लगे...इसी
क्रम में पार्टी का झंडा तिरंगा हो गया बस चक्र उसमें से हटा लिया गया....तबले
लेकर अब तक इन तीनों रंगों पर इन्हीं का क़ब्ज़ा है....लगातार 45-50 सालों तक देश में इसी एक पार्टी का क़ब्जा रहा...
इस दौरान जो भी लिखा गया आजादी
का इतिहास से लगायत अन्य किताबों में शहीद भी यहीं बने,सेनानी भी यहीं बने,देश प्रेमी भी यहीं बने और लोकतंत्र के नायक भी यहीं
बने...यानी जो थे या हो सकते थे सब यहीं ये और होते अब रहे... इसका प्रमाण जानने के
लिए स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास पढ़ें फिर ख़ुद ही समझ जाओगे
...
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रफ़्ता-रफ़्ता
लोकतंत्र आगे बढ़ा जा रहा था. एक दिन इसके क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद ठीठक गये... एक लोकतंत्र के भीतर,दूसरे लोकतंत्र की लड़ाई शुरू हो गयी...इसका आगाज 1967
के क़रीब शुरू हुआ...1970 के दशक से रूबरू होते...1975 में ही घायल होते हुए आगे बढ़ा...बढ़ता ही रहा... धीरे-धीरे यह फलदार
वृक्ष हो गया हर कोई इसका फल तोड़ने-चखने के लिए जनता से लगायत क़ानून और लोकतंत्र तक का क़त्ल करने
लगा .... अचानक
राजनीति में परंपरागत घरानों के अलावा,माफ़िया घरानों,ठेकेदार घरानों,व्यापारिक घरानों,आपराधिक घरानों और चुनी हुई जातियों के घरानों में लोकतंत्र की शहनाई
बजने लगी.... एक
दिन ऐसा आया जब उनमें एक तरह की समानता देखने को मिली.आवरण अौर एकता की... जिनका दिल-दिमाग़ काला
था,वो भी सफ़ेद लकदक आवरण धारण
किया राष्ट्री प्रेमी और स्वघोषित रहनुमा बन गया,जो असल में थे उनकी राष्ट्रीयता की परीक्षा ली जाने लगी ... लोकतंत्र अभी 66
वें वर्ष में कदम रखा ही था कि एक दिन
उच्च न्याय पालक को कुछ याद आया..दागियों, कत्लियों
को लोकतंत्र से दूर रखने के लिए एक फ़ैसला सुनाया... तभी एक दिन दागियों और उनके दाग़दार संरक्षकों
ने 'उसे' घेर लिया...
फिर एक दिन आकाशवाणी हुई,लोकतंत्र को लूटेरों से बचाओ...
एक दिन
सब लूटेरे और उनके सरदार एक गोल नुमा घर में इकठ्ठा हुए... पंचायत किये और फैसला हुआ कि लूटेरे हमारे देश
के राष्ट्र रत्न हैं...इनको बचाना...राष्ट्र को बचाना है...और अंततः एक फार्मूला
निकला गया... भूखे-नंगे,
अनपढ़ों जो जल,ज़मीन,जंगल
और आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं, उन्हें जेल में डालो. ये सब
देश को तोड़ने-बांटने के लिए...क़ानून-व्यवस्था के तोड़क हैं. इनसे देश को ख़तरा है...? अंततः निर्णय हुआ. असली राष्ट्र भक्त तो हमीं
हैं.असली जन सेवक भी हमीं हैं...और हमीं को जनता की सेवा करने से अल़ग किया जा
रहा है... इसी
बीच उन्हीं में से एक ने नारा लगाया "ऐसे न्याय नहीं चलेगा... हम सब लोकतंत्र से ऊपर
हैं ...ऊपर हैं...लोकतंत्र हमारे नीचे है ...नीचे है ... यह हमारे लिए लागू नहीं होगा....नहीं होगा ....नहीं
होगा ...
और सब
दागियों ने मिलकर, दागियों को
बचा ले गये...
नेपथ्य
में लोकतंत्र पिलर पकड़कर रो रहा था ....
इसी बीच
सब्जी वाले ने आवाज़ दी... प्याज ले लो... 100 रूपये किलो, टमाटर 60 रूपये किलो...
'माँ'
चौंकी...
बोली
दरवाजा बंद करो ....!
तब तक
हमें झपकी आ गयी थी माँ बुदबुदायीं
"जिन्दा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार
नहीं करतीं..."
आज़ादी के 66वें
साल को याद करते हुए ....!
डॉ रमेश
यादव
सहायक
प्रोफ़ेसर
इग्नू, नई दिल्ली.
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