हाय
काश बरखा की बदरी कजरी बन जाऊं ....
गुड
धानी बन बच्चों की आस प्यास जगाऊं
मेरी
खिलखिलाहट टिप टिप बूंदों में बदल जाए
प्रकृति
की नसों का रूखापन हवा की थकन ,
भी
दूर कर पाऊं चक्कर खाती धरती को
धो
पोंछ कर फिर से हरिया दूं
ठुनक
कर बरसूं ,लपक कर चमकूं ...
धमक
कर तुम्हारी खिड़की पर आ बैठूं
गाँव
शहर गली मोहल्ले बार चौबार भिगो दूं
छई
छप्पा छै खेलती गुड़ियों की गुयियाँ बन जाऊं
रंसोयी
महकाऊं गरमा गरम भजिया बन जाऊं
रूठों
को मनुहारूं ,बिछड़ों को पुकारूं
हाय
काश बरखा की बदरी ,कजरी बन जाऊं .......
डॉ सुधा उपाध्याय, एसोसिएट प्रोफ़ेसर,
जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय.
पहली बुंद गिरे धरती पर जब
महक उसकी सोंधे जैसी
छप्पर के टोटी से पानी गिरे ऑगन में जब
मैं बुंद गिना करता था
अनबरत बुंदों को गिन गिन मैं लयबद्ध हो गया
पहली बुंद गिरे धरती पर जब
महक उसकी सोंधे जैसी
छप्पर के टोटी से पानी गिरे ऑगन में जब
मैं बुंद गिना करता था
अनबरत बुंदों को गिन गिन मैं लयबद्ध हो गया
बहुत खूब ...वे सभी जो गुडधानी , गुइंयाँ और कजरी से परिचित हैं उन्हें फिर से अपने परिवेश में ले जाने और कविता में बाँधने के लिए धन्यबाद
मधुर प्रयस। साधुवाद सुधाजी
रूठों को मनुहारूं ,बिछड़ों को पुकारूं
हाय काश बरखा की बदरी ,कजरी बन जाऊं .......
बहुत खूब ...धन्यबाद