मुंसिफ जो था उसे भी गुनहगार देखकर ,
हम खुद उठा रहे हैं अपनी राह का पत्थर.
कोई रखता हो छुपा के ज्यों जीवन की कमाई,
माँ रखती है छुपा के यूँ अश्कों का समंदर.
एक आह मेरी सुन के जो हो जाते थे बेचैन,
हर ज़ख़्म से मेरे हैं आजकल वो बे-खबर.
कानों में गूंज उठाते हैं वेदों के मीठे बोल,
जब चहचहाती हैं हमारी बेटियाँ घर पर.
नाज़ों से जिसने सींचा था भारत की नींव को
वो रहनुमा वतन के भटकते हैं दर- ब- दर.
कल्याणी कबीर,
जमशेदपुर
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