शहर में अजनबी हूँ, माँ ! तुम्हारी याद आती है,
तुम्हारा गाँव, गलियां, देहरी छत सा बड़ा आंगन
हवा में गूंजती वो आरती की जोत वाली धुन,
वो 'माँ
'की आरती गाना,
वो श्रद्धा से भरी
आँखें,
फिजां में तैरते वो श्लोक सारे याद आते हैं,
शहर में अजनबी हूँ, माँ ! तुम्हारी याद आती है,
तुम्हारे हाथ जो बुनते, उलझते ऊन के धागे,
न उलझी जिन्दगी की डोर, ममता से भरी आँखें,
तुम्हारे मौन में डूबे नयन माँ, याद आते हैं .
शहर में अजनबी हूँ, माँ ! तुम्हारी याद आती है,
कभी हमने नहीं जानी थीं सुख दुःख-सी बड़ी बातें,
कहाँ ढलता है दिन, और कौन सारी रात जगता है,
कभी दुःख की नहीं ओढ़ी, जरा भी हमने परछाईं,
तुमने सुख सदा बांटे, दुखों की चोट खुद खाई,
तुम्हारे स्नेह के अनमोल पल, माँ, याद आते हैं
शहर में अजनबी हूँ, माँ ! तुम्हारी याद आती है.
पद्मा मिश्रा
जमशेदपुर
माँ को समर्पित भावभरी रचना ... हर पंक्ति दिल को छूती है ...
वाह !
माँ के दुःख-दर्द-गम को महसूस कराने वाली पंक्तियाँ लिखने के लिये धन्यवाद. . .
सुंदर रचना ।