चल आ शाख बचाते है
मिटती इंसानियत का हमदोनों
भाई- भाई मिलकर गले
खुद की लाज बचाते है हमदोनों
एक जैसा ही लहू और सूरत
तेरा है और मेरा है
क्यों लकीरें खीँच के कहते
फिर वो वतन तेरा और ये मेरा है
मत बाँट मजहब को
लाल रंग और हरे रंग के दंगों से
होता कुछ नहीं इनसे रोती है
अपनी ही माँ लालों को लपेट के तिरंगों से
जब करना ही है तो कुछ ऐसा कर
मिटा शरहद के लकीरों को
वरना देख लेना एक दिन पेड़ों के पत्तें
और शाखें टूट के रोयेंगे
जब परिंदे भी सारे हम
हिन्दू और मुस्लमान
की भाषा बोलेंगे
ये समझ क्यों नहीं आता
सबको क्यों कोई लाल रंग के लिए
कोई हरा रंग के लिए जीता है.
क्यों नहीं यहाँ कोई कभी एक इंसान
एक इंसान के लिए जीता है?
जब एक ही हवा, एक ही पानी
एक ही मिट्टी, दोनों मुल्कों के है.
फिर क्यों हम इंसान
हिन्दू और मुस्लमान के शक्लों के है ?
अजय ठाकुर, (नई दिल्ली)
मिटती इंसानियत का हमदोनों
भाई- भाई मिलकर गले
खुद की लाज बचाते है हमदोनों
एक जैसा ही लहू और सूरत
तेरा है और मेरा है
क्यों लकीरें खीँच के कहते
फिर वो वतन तेरा और ये मेरा है
मत बाँट मजहब को
लाल रंग और हरे रंग के दंगों से
होता कुछ नहीं इनसे रोती है
अपनी ही माँ लालों को लपेट के तिरंगों से
जब करना ही है तो कुछ ऐसा कर
मिटा शरहद के लकीरों को
वरना देख लेना एक दिन पेड़ों के पत्तें
और शाखें टूट के रोयेंगे
जब परिंदे भी सारे हम
हिन्दू और मुस्लमान
की भाषा बोलेंगे
ये समझ क्यों नहीं आता
सबको क्यों कोई लाल रंग के लिए
कोई हरा रंग के लिए जीता है.
क्यों नहीं यहाँ कोई कभी एक इंसान
एक इंसान के लिए जीता है?
जब एक ही हवा, एक ही पानी
एक ही मिट्टी, दोनों मुल्कों के है.
फिर क्यों हम इंसान
हिन्दू और मुस्लमान के शक्लों के है ?
अजय ठाकुर, (नई दिल्ली)
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