एक शब्द बंजारा
रात की चादर ओढकर निकला

तन्हा मन के आंगन से
पहुँचा भावों की गली

दिल के समुन्द्रर में
कागज की कश्ती चली

सुख-दुख के अहसास की ले पतवार चला
एक शब्द बंजारा

रात की चादर ओढकर निकला
आवारा बादल को ज्यो

जेहन की कैद मिली
लकीरों की बाजीगरी में

क्या इसे शोहरत मिली
हर अहसास लिया मापा-तौला

यादों की गलियारों में
कभी उलझा, कभी संभला

एक शब्द बंजारा
रात की चादर ओढकर निकला

तमन्नाओ के कर्जे
किश्तो-किश्तो में चुकाने निकला

कलम की लाठी टेक-टेककर
हर कोरे पन्ने पर फ़िसला

एक शब्द बंजारा
रात की चादर ओढकर निकला....


निशा मोटघरे
औरंगाबाद, महाराष्ट्र


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