कौवे का आगमन , प्रातः काँव-काँव
भले ही कर्णप्रिय नहीं भी होते
पर, हृदयप्रिय अवश्य ही होता.

नींद - तोड़कर कर्कश आवाज़ में भी
प्रियतम के आने की खबर होती
सपनो को सजाने की खबर होती.

चाहत की डोर जब हो जाती पतली
प्रतीक्षा की पगडंडियों पर चलकर
आँसूं कपोलों से लुढ़क- लुढ़क कर
सुख जाते कोमल कनक-कुंभ तक आकर.

सांझ बेला में गजरा लगाकर
हो जाती तैयार
स्वप्नलोक के नैसर्गिक
नाव पर सवार
गुलबदन गुलशन चितवन सजाकर
गुलाबी परिधान ,कुमकुम काजल लगाकर.

अर्धरात्रि बीत जाती आहट की चाह में
अलसायी नींद अनचाहे घबराहट में
फिर वही काँव- काँव हमें जगा जाता
वियोग की व्यथा सवार्धिक बढ़ा जाता.

अपने काँव-काँव से धड़कन तूम बढ़ा जाते
मनसागर में मोतियों की झलक दिखा जाते
हृदयांगन में तोड़नद्वार हम सजाने लगते
पुष्प-गंध आरती से रंगोली बनाने लगते .

शैया भी आज स्वच्छ सुवासित साफ़ है
प्रीतम आयेंगे या नहीं, मन थोड़ा उदास है
प्रियतम का आना, यह काम उनका, वे ही जाने
परन्तु नहीं ही आयेंगे , मन मेरा क्यों माने ?

काँव-काँव  तुम आशा-अभिलाषा बनाये रखना
दिल में मिलन की लगन को जगाये रखना
इसी द्वन्द- दौड़ में जिंदगी की शाम हो जाये
शायद कोई सहर में दिलवरे-दीदार हो जाये.

विश्वनाथ विवेका
कुलानुशासक
(BNMU MADHEPURA)

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