मौसम का ये बदला
मिजाज
सूरज का ये कातिल
सा छलावा
बूंदों में खुद
को तराश कर
ओस का गिड़ना
महज एक धोखा होता
तो
रैनबसेरे में
तेरी यादों के सहारे
मैं भी एक रात
गुजार आता
मैं भी देख आता
ये जिद्दी हवाएँ
कितनी और सर्द हो
सकती है
जो जीने के लिए
मुझे तेरी यादों
से दूर कर सकती है
सच तो यही है
कसम सी खा के
बैठी है
ये शीत की ऋतु
यूँ लग रहा है
पूस की इन रातों
में जैसे
किसी अपनों से
उसकी टकरार हुई है
तभी तो
इतना कुछ देख के
भी
वो खुद को बदल
नहीं रही
एक फटी कम्बल में
लेटी
वो बूढ़ी अम्मा
चौड़े से सड़क के
उस किनारे
फूटपाथ पे
ठिठुर रही है ठंड
से
वो लड़की
जो हर रोज
ऑफिस से मेरे घर
वापस आते वक़्त
एक गुलाब ले लो
साहब
मेमसाहब को दे
देना
वो खुश होगी
जो ये कहती थी
आज इस ट्रफ़िक
सिग्नल के
लाल होने पे भी
नहीं आई थी मेरे
पास
बस बेबस और
कपकपाती
नज़रों से घूर रही
थी
दूर से ही
जैसे कह रही हो
वहीँ से
साहब एक कम्बल ला
के
दे दो कहीं से
मेमसाहब खुश होगी
जो सुनेगी कि
आप ने किसी एक
मजलूम को
ठंड से बचाया है
ये देख
मेरा दिल जब मचल
सकता है
तो
ऐ पूस की रातें
तू क्यों नहीं
अपने आप को बदल कर
इन मजलूमों के
दुखों में
शामिल हो जाती हो
क्या वैर है आखिर
तेरा इनसे ?
अजय ठाकुर
मधेपुरा
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