उत्तर बिहार में प्रचलित पकड़ुआ विवाह
पर केन्द्रित कहानी
दूर दूर तक फैली काली अँधेरी रात ,खेत में चारों तरफ
धान की फसल | बरसाती मेघ धीरे-धीरे आसमान पर अपनी चादर फैला रहे थे | चार-पांच दिन
पहले हल्की बौछार करके उसने अपने छाने का संकेत दे दिया था | काले-काले बादल नीचे की ओर
ताक-झांक कर हो-हल्ला मचा रहे थे | वातावरण पूरी तरह से ‘चन्द्रकान्तामयी’ था | यही वह मौसम है जिसमें
सांप काटने की घटना अचानक से बहुत बढ़ जाती है | मुझे सांप और कुत्तों से बेहद डर लगता
है, लेकिन अभी मुझे किसी चीज से डर नहीं लगा रहा सिवा उन लोगों के जो मेरे पीछे पड़े
थे | बड़ी मुश्किल से दिमाग लगा के उनके चंगुल से निकला हूँ, अगर इस बार धरा गया तो
मेरी शादी निश्चित है...| कुत्तों की रह-रह कर आती आवाज ने ऐसा डरावना माहौल पैदा कर
दिया कि मुझे लगने लगा की मैं पकड़ा जाऊंगा | पिछले दिनों अपने गाँव के लड़कों के साथ
मैंने भी सेना में जाने की तैयारी शुरू की थी, बाद मेरा मन इसमें नहीं लगा और मैंने
दौड़ना छोड़ दिया | लेकिन दौड़ने का वह अनुभव यहाँ काम आया | मैं एकदम नाक की सीध में
भागा जा रहा था | अब मेरे और उन लोगों के बीच अच्छी-खासी दूरी हो चुकी थी | लेकिन एक
दिक्कत यह थी कि वे लोग थोड़ा विलम्ब से जरुर पर पूरी तैयारी के साथ आये थे | उनके पांचसेलिया
टॉर्च की रोशनी जब मेरे ऊपर पड़ती तो मेरा हौसला टूटने लगता | चूँकि मैं कोई चोर तो
था नहीं कि चोर-चोर की आवाज लगाई जाती | इससे उसके और आस-पड़ोस के गांवों के जग जाने
की आशंका थी | आवाज नहीं आने के कारण मुझे बीच की दूरी का सही सही अनुमान नहीं हो पा
रहा था | मैंने शुरू में एक दो बार पीछे देखने का आधा-अधूरा प्रयास किया पर अब पीछे
लौट कर देखने का ना तो समय था ना ही कोई फायदा क्योंकि अँधेरे में मुझे पीछे का कुछ
दिखाई नहीं देता और ऊपर से टॉर्च की चुंधियाई रोशनी |
यह सोच-सोच कर मेरा दिल बैठा जा रहा था कि क्या सचमुच
एक ऐसी लड़की से मेरा विवाह किया जा रहा था जिसकी सूचना ना मुझे थी ना मेरे घर वालों
को | लड़की वैसे सुन्दर और लम्बी भी है | माय को ऐसी ही बहू चाहिए और जरा जल्दी चाहिए.....|
इसलिए अगर यह शादी हो भी जाती तो थोड़ा बहुत नाज–नखरे दिखाकर माय मान जाती | हाँ इस बात की कसक जरुर रहती
कि तिलक नहीं मिला | इतना भी तय है जब उनको इस बात की याद आती तो इसका गुस्सा लड़की
पर जरुर उतरता | माय को इसके सिवा कौनो दिक्कत नहीं, हम जानते हैं ना माय को! बाँकी समय अपने पूतोह को खूब मानती... | रही बात
बाऊ की तो वो ठहरे भले आदमी | ठीक से सुन भी नहीं पाते | हाँ अगर कोई जोर से चिल्ला
कर यह बात उनको समझा दे तो उनका चेहरा जरुर लटक जायेगा | लेकिन तब भी ‘इस लड़की को घर से निकालो’ की नौबत नहीं आएगी | सेवा टहल
पर बाऊ भी मान जायेंगे | मारा तो मैं जाऊंगा | साल भर पहले सहरसा के बजाय बैजनाथपुर
के कॉलेज में नाम लिखवाया ताकि कॉलेज ना करना पड़े | इससे जो समय मिलता सहरसा में रह
कर बैंक की तैयारी करता और खर्चा निकालने के लिये बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता | गर्मी की
छुट्टी में घर आया था सोचा माय बाऊ की सेवा टहल के साथ छोटका भाई पर जो बोझ है शायद
उसको भी कुछ हल्का कर सकूँगा, पर आज तो मेरे अरमानों में आग ही लग रही थी मानों | बहुत बार गाँव के बड़े बूढों
से ये कहावत सुनी थी ‘जाके राखो साइयां मार सके ना कोय’ | अब मेरे सामने एक विशाल गाछी
(बगीचा) दिख रहा था | अँधेरा होने के बाबजूद इसका आभास दूर से ही हो गया और कुछ काम
पीछे से आती टार्च की रोशनी ने कर दिया | मैंने
बजरंगबली का नाम लिया और उसी तरफ अपने आप को मोड़ दिया | लोग अब भी मेरे पीछे थे और
मुझे मेरे पूरे खानदान के साथ गाली दे रहे थे | हालांकि ज्यादा शोर शराबा ना हो जाए
इसके लिये वो पूरी तरह सतर्क थे | चप्पल मेरे पैर से कब निकल गयी यह मुझे तब पता चला
जब गाछी में कुछ मेरे पैर में चुभा पर उसकी परवाह कहाँ | बगीचे में तेज दौड़ने में दिक्कत
हो रही थी इसलिए लग रहा था कि धरा ना जाऊँ ...| अचानक दिमाग में कुछ सूझा | हमारे गाँव
में एक डाकू था रमखेलिया | वह गाँव के लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ता था । यहाँ तक कि वह
फायदा ही पहुंचाता था इसलिए लोग उससे खुश रहते थे | उसका हुक्का पानी भी सबसे था
....| एक दिन पूस महीने में हमारे घूरे में बैठ कर वह बता रहा था कि एक बार तो वह पुलिस
की गोली से बचा गया | उस वक्त मैं बच्चा था पर मुझे याद है कि उसने बताया था कि वह
सीधे भागने के बजाय लहरिया कट में भाग रहा था जिसके कारण उसे एक भी गोली नहीं लगी
| मैंने भी अब सोच लिया की सीधे भागने का कोई अंत नहीं है | गाछी के दाहिने और सीधे
निकलने का रास्ता आसान लग रहा था पर बायीं और गाछी कुछ ज्यादा घना लग रहा था | मैंने
अपने को हौसला दिया कि बचने का यही एकमात्र उपाय है | मैं सधे क़दमों से उधर बढ़ चला
| अचानक मेरे पैर से किसी चीज का स्पर्श हुआ मैं वहीँ उछल पड़ा | मेरा हौसला पस्त हो
गया | वह सारे लम्बे- लम्बे सांप झट से मुझे याद आ गए जो कुछ ही दिन पहले मैंने बिसुन
के बाड़ी की सफाई में मैंने देखे थे | इस डर से डरो तो पीछे का डर कम नहीं था | इसमें
तो तुरंत मर जाऊंगा पर उसमें तो हर दिन मरना पड़ेगा..... | मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा
कि क्या था और अँधेरे में पता भी कैसे चलता ? पर सांप का जो ख्याल मन में आ गया था
उससे चाल कुछ देर के लिए अटपटी हो गयी या यूँ कहें कि भागना कुछ देर के लिए थम सा गया
था और सतर्कता बढ़ गयी थी...| लेकिन मैं घिसट-घिसट कर भागता जरुर रहा | मैंने अपनी रणनीति
बस एक बदलाव किया वो ये कि अब मैं सीधा भागने के बजाय तिरछा भागने लगा.... | किस्मत
लगातार मेरा साथ दे रही थी | मैंने कुछ की
पलों में अपने को एक ऊँची जगह के करीब पाया | बिना सोचे मैं उस पर चढ़ गया | जब नजदीक
से देखा कि यह तो नहर है मेरा दिमाग तेजी से
चलने लगा | नहर पर ऐसा कुछ नहीं था जो टॉर्च की रोशनी को छुपा सके, वैसे आमतौर पर नहर
पर पेड़ लगे होते हैं | अगर कोई मोटा पेड़ होता तो उसके पीछे खुद को छुपाया जा सकता था
पर यहाँ ऐसा कुछ नहीं था | इसलिए अगर इस नहर पर मैं सीधा भागता तो टॉर्च की रोशनी से
बच नहीं पाता | नहर से उतर कर अब मैं सीधा भागने के बजाय नहर के दाएं टीले से सट कर
भागने लगा | नहर का तट थोड़ा ऊँचा था इसलिए किसी को पता चलना जरा मुश्किलथा कि नीचे
क्या हो रहा है | हालांकि यह भी सुरक्षित नहीं था
क्यूंकि अगर उनको इसका अनुमान हो जाता तो एक टॉर्च की रोशनी काफी थी | लेकिन
इसमें वैसा डर नहीं था जैसे खुले नहर पर भागने में था | मुझे लगता है कि मेरे इस फैसले से वो लोग कुछ देर
के लिये उलझ गये होंगे कि किधर खोजा जाय | मैं बिना पीछे देखे भागता रहा | कहाँ से
आ गयी थी इतनी ताकत मुझमें पता नहीं | वैसे तो मैं शारीरिक मेहनत से भागने वाला आदमी
हूँ | गाँव के लोग मुझे चिढाते भी हैं कि मुझे खेती–बाड़ी करने में मन नहीं लगता इसलिए पढाई का बहाना करता
हूँ , पर मेरे मन में खेती को लेकर कोई लगाव नहीं है, मुझे
तो पढ़ -लिख कर कुछ बनने का मन है | लेकिन साले
इस महेसर ने फंसा दिया | उसको अपने साली के लिये मुझ जैसा बेरोजगार ही मिला था | लगता
है उस दिन उसके सामने जो अपने मन की बात कही थी उसको उसने सच हुआ मान लिया शायद | उसको लगा होगा
कि यह जो कह रहा है आज ना कल वो सच होगा ही, इसलिए मुझे अभी ही फांस लेने की कोशिश
की और वह बात उसने इन लोगों को भी बता दी होगी कि मैं बैंक पीओ बनने वाला हूँ, तभी
तो मैं कहूँ कि कल से वो लोग मेरी इतनी खातिरदारी क्यूँ कर रहे थे |
कुछ देर तक भागने के बाद सामने एक सड़क सीना ताने खड़ा था
| मैं ऊपर चढ गया | मैंने नहर पर भी जाकर टोह लेने के कोशिश कि पर दूर दूर तक कुछ दिखाई
नहीं दिया | मेरी रणनीति शायद सफल रही या तो वो लोग दूसरी दिशा में खोजने चले गये या
फिर हार कर वापस लौट गये | लेकिन नहर सीधा था रिस्क नहीं लिया जा सकता था अगर वो लोग
किसी गाड़ी से पीछा करें तो मैं तुरन्त पकड़ा जा सकता हूँ, इसलिए अब मैंने नहर के बजाय
सड़क पकड़ना ज्यादा उचित समझा... | सड़क पर आ जाने के बाद थोड़ा सुकून तो मिल रहा था पर
डर से मुड़-मुड़ कर पीछे भी देख रहा था कि कोई आ तो नहीं रहा | कुछ ही दूर चला होऊंगा
कि कुछ दूर पर रोशनी का आभास हुआ | उसी पर नजर टिकाये मैं आगे पीछे देखता चल पड़ा |
परसों
सुबह महेसर ने मुझे कहा कि ददनी में अरकेस्ट्रा है देखने चलोगे ? भला जवान मन काहे
को ना करे | मैंने भी सोचा छुट्टी का मजा उठा लिया जाय, क्या पता सहरसा में यह मौका
ना मिले | हम महेसर के ससुराल पहुंचे तो कुछ भी मेरे लिये नया नहीं था | मैं उसकी शादी
में यहाँ बाराती आ चुका था और मुझे ये भी पता था कि उसकी तीन-तीन साली है | एक साली
से तो मेरा एकतरफा याराना भी था और सपने में सब तरफ़ा... | महेसर दुआर पर ही कुछ ससुराली
लोगों से गपियाने लगा | अब सोचता हूँ तो लगता ही कि वो उस वक्त कह रहा होगा कि... मुर्गे
को फंसा का ले आया हूँ....अब आप इसको संभालिए... |
पर उस वक्त तो मैं यह भांप भी ना पाया था | यहाँ का हर
कुछ मुझे पता था और सौभाग्य से कुछ भी बदला नहीं था | दोस्त का ससुराल हो और सालियों
की भरमार हो तो बन-ठन कर रहने में क्या बुराई ? उस वक्त जो चापाकल बाड़ी और दुआर के
बीच में था वह आज भी वहीँ था | घर पर जब होता तो जैसे-तैसे हाँथ मुंह धो लेता था पर
यहाँ तो मन कर रहा था कि रगड़–रगड़ कर धोते रहे कि जब तक कोई साली आकर ना कहे कि चलिए
नाश्ता कर लीजिए | हुआ भी वही जल्दी से हमलोगों को नास्ता मिला और हमलोग अरकेस्ट्रा
देखने चले | रात भर महफ़िल जमी, सुबह देर तक हमलोग सोते रहे | पर मुझे क्या पता इधर
हमलोग सो रहे थे और उधर हमको सूली पर लटकाने की तैयारी चल रही थी | दोपहर होने से ठीक
पहले उठा तो बहुत सारे लोग सेवा में तैयार थे, सुबह की औपचारिकता निभाने के लिए | हमदोनों
को जल्दी से गाछी भेजा गया | मैं तो कहने वाला था इतनी हड़बड़ी क्या है पर महेसर चुपचाप
रहा तो मैंने भी कुछ नहीं कहा | हमलोगों ने गाछी में ही दातून तोड़ लिया था और रगड़ते-रगड़ते
दुआर पर पहुँचे | उसके तुरंत बाद नाश्ता भी मिल गया | मुझे ससुराल का कोई खास अनुभव
नहीं था सोचा हो सकता है दामाद का लोग ऐसा ही मान सम्मान करते हैं इसलिए महेसर के साथ
मेरा भी ख्याल रखा जा रहा है... |
मुझे पीले रंग की धोती दी गयी पहनने के लिये | मैंने थोड़ा
सकुचाकर पर महेसर का इशारा पाकर वह भी पहन लिया | मुझे वही साली आँगन ले जाने
आयी जो मेरे सपनों में आती थी | भला मैं क्यूँ इंकार करता ? पर आँगन जाते ही
मुझे कुछ शक सा हुआ | मुझे आदर के साथ के पीढे पर बिठाया गया | कुछ औरतें झुण्ड बनाकर
बैठी थी, उनमें से सब ने एक साथ चकित होकर
मुझे देखा और एक दूसरे के कान में कुछ कहने की कोशिश की | बस एक औरत सामने से आ रहे
एक लड़के को कुछ कहने के चक्कर में थोडा सा साड़ी समेट कर उठी और उसे एक कोने में ले
जाकर कुछ समझाने लगी | शादी के समय किया जाने वाला विध-विधान मेरे साथ किया जाने लगा
| मैंने थोड़ा सशंकित होकर पूछा कि ये मुझसे
क्यूँ करवाया जा रहा है ? यकीन मानिए उन लोगों ने बिना किसी हिचकिचाहट के मुझे बता
दिया कि तुम्हारी आज शादी है रेखा से | मेरा तो माथा घूम गया सुनकर | बचपन में मुखिया
जी के भाठा पर ईंटों को जोड़ कर एक खेल खेलते थे जिसमें एक ईंट को ठोकर लगी नहीं कि
सारी ईंट भरभरा कर गिर पड़ती थी | उसी तरह मुझे लगा आज मेरे सारे सपने बिखड़ गये | मेरी
जिंदगी अंधकारमय हो गयी | मैंने आशा भरी नजर से आस पास देखा | सामने वही परिचित आँख
थी जिसे मैं सपनों में भी देखा करता था | इसका मतलब मेरी शादी इससे नहीं हो रही, नहीं
तो यह मेरे सामने क्यूँ खड़ी रहती ? यकीन मानिए अगर मेरी शादी उससे हो रही होती तो मैं
थोड़ा बहुत नखरा करता पर जल्दी मान जाता | पर मामला ऐसा नहीं था, मैं ये शादी कतई नहीं
करना चाहता था | मैंने अपने दोस्त को आवाज देने की कोशिश की पर औरतों ने फिर बता दिया
कि अगुआ तो वही है वो क्या बोलेगा ? अब मुझे दोस्त से ज्यादा अपने पर और अपने से ज्यादा
भगवान पर गुस्सा आ रहा था क्यूंकि मैं हर गुरुवार व्रत रखता था ताकि मनचाही पत्नी मिले | मैंने उन दोनों क्षणों को याद कर अपने को
धिक्कारा जब मैंने व्रत रखना शुरू किया था और जब मैंने महेसर के साथ ददनी आने का फैसला
किया | लो अब भुगतो अरकेस्ट्रा का मजा.....! नाचो कनिया लेके जिंदगी भर | अब मेरे दिमाग
में एक ही बात चल रही थी कि यहाँ से भागा कैसे जाय ? आँगन से लेके दुआर तक पर पहरा
साफ़ दिखाई दे रहा था | जबरदस्ती भागना तो मुश्किल है | मैंने अपने शरीर को ढीला कर
दिया वो लोग जो करवा रहे थे करने दिया | उनका खाना खाया है इसलिए भी इमानदारी से कहता
हूँ खाना बड़ा स्वादिष्ट खिलाया उन लोगों ने | सालियाँ खूब मजाक कर रही थी | मैंने भी
मन ही मन रणनीति बनाते हुए खुद को ऐसा दिखाने की कोशिश करने लगा कि मैं अब खुश हूँ
मुझे इस शादी से कोई दिक्कत नहीं है.... |
शाम होते होते मुझे फिर से खाना खिलाकर दुआर पर पहुंचा
दिया गया | आज मेरे लिये खास व्यवस्था थी | सब कुछ नया नया बिछाया गया था मेरे लिये
| सुबह तो सालों ने जैसे तैसे सुला दिया था, पूरा देह खटमलों ने काट काट कर सुजा दिया
था, पर रात का सुरूर और थकन में कुछ पता ही ना चला |
मैं अब इन मर्दों को विश्वास में लेना चाहता था ताकि भागने का कोई मौका मिले | औरतों को तो मैंने विश्वास में ले लिया था, अगर मुझे आँगन में सुलाया जाता तो मैं कब का खिसक चुका होता पर यहाँ तो उल्टा हो गया था | मैंने अपने होने जा रहे साले से कहा कि जल्दी सोने की आदत नहीं है क्यूँ ना हमलोग ताश खेलें.... | पिछले कुछ घंटों से मेरा जो व्यवहार था, उससे कोई अंदाजा लगा ही नहीं सकता था कि मेरे मन में क्या चल रहा है ? दूल्हा का आदेश हो और उसका पालन ना हो, हो ही नहीं सकता | तुरंत ताश का इंतजाम किया गया | सात लोगों की महफ़िल जमी | जो तीन एक्स्ट्रा थे उसमें से दो तो मेरी सहायता के लिये मेरे पीछे बैठ गये | आज कोई दूल्हे को हारता नहीं देखना चाहता था | खेल चलता रहा खिलाड़ी उंघते रहे, क्यूंकि गाँव के लोग देर तक जागने के अभ्यस्त नहीं हैं | कोई और दिन होता तो मुझे भी नींद आ जाती पर आज के दिन मेरी आँखों में नींद कहाँ | मेरे सारे सपने लूटने जा रहे थे | मैंने अपनी रणनीति का पहला दाँव खेलते हुए अपने सालों से कहा की मुझे खेत जाना है, जोर की लगी है | एक बार तो वे लोग चौंके पर दूसरे ही पल संभले | मैंने कुछ पलों को छोड़ कर हर वक्त ऐसा व्यवहार किया जिससे मेरे खुश होने का भ्रम लोगों को होता रहे | मेरे चेहरे पर ऐसे भाव आ गये मानो कह रहे हों अगर विश्वास नहीं है तो ठीक है रहने दीजिए हम दबा लेते हैं | पर उन नौजवानों के बीच एक बुजुर्ग भी थे, जो शायद मेरे चचिया ससुर थे ने इशारा किया इनको खेत ले जाओ | मेरे साथ दो नौजवान चले | खेत दुआर से सौ–पचास कदम दूर था | एक नौजवान रास्ते में चापाकल पर ही हाथ-मुँह धोने लगा | ताश खेलते हुए उसे नींद आने लगी थी | मुझे आभास हो गया की मेरा आधा काम हो गया, पर डर इस बात का भी था कि अगर पकड़े गये तो बहुत पिटाई होगी | नए उमर के ये लौंडे तो मुझे सुबह से ही पीटने का प्लान बनाये हुए थे वह तो शुक्र है उन बुजुर्गों का जिन्होंने यह कह कर मुझे बचा लिया कि अगर प्रेम से लड़का बात मान रहा है तो मार पीट करने की क्या जरुरत | हम दोनों आगे बढे | खेत चारों तरफ फैला था | मैं कुछ दूर जाकर बैठ गया और वो सब कुछ करने लगा जिससे वातावरण वास्तविक लगे | मेरा टहलुआ भी खड़े-खड़े उब कर कुछ दूर पर बैठ गया | मुझे तो कुछ करना था नहीं मैं दम मार कर बैठा रहा और उसपर गौर करता रहा | उसको भी लगी थी नहीं, पर मेरे कारण उसको भी बैठना पड़ा | देखा-देखी में भी कभी कभी प्रेशर बन जाता है | वह जल्दी निपट गया और पानी लेने बगल के गड्ढा की तरफ बढ़ा | मैं पहले से ही तैयार था, झटपट में धोतीसमेटी और धीरे धीरे दाँये खिसकने लगा | उसने वहीँ से मुझे आवाज दी, मैंने भी रुकने का इशारा किया और दाएँ भागना शुरू किया | पत्तों पर जो मेरे लात पड़े उससे मेरे भागने का आभास उसे हो गया | उसने वहीँ से चिल्लाना शुरू किया और मेरे पीछे भागना भी | वह कभी आवाज लगाता तो कभी मेरे पीछे दौड़ता | पर मैं तो सिर्फ अपनी जान बचा कर अपने क्षमता से ज्यादा तेज भाग रहा था | जब तक वो लोग टॉर्च के साथ मेरे पीछे सही से आ पाते मैं उनसे दूर निकल गया था |
शरीर टूट रहा था, कहीं बैठ जाने का मन कर रहा था पर खतरा
अभी टला नहीं था | मैं घिसटते- घिसटते उस रोशनी के करीब पहुँचा | वह एक मंदिर था |
मैंने पुजारी जी को जगाया और सारी बात बताई | पुजारी जी नींद में थे उन्होंने मुझे
मंदिर के प्रांगण में सो जाने का इशारा किया | प्रांगण में सोने से खतरा हो सकता था
क्योंकि रास्ते पर से वह जगह साफ़ दिखाई देती थी | मैंने नजर दौड़ाई तो देखा कि ऊपर का
चबूतरा ज्यादा सुरक्षित जगह है जहाँ तीन तरफ से दीवाल है | मैंने धोती खोली और उस जगह
को साफ़ किया और निढाल हो गया | शरीर टूट गया था | अब शरीर कह रहा था कि भाई अब मुझे
और भागा ना जायेगा अच्छा किया जो यहाँ रुक गये | कब आँख लगी पता ना चला | सुबह पुजारी
जी ने उठाया और ध्यान से सारी बातें सुनी और विश्वास दिलाया कि अब तुम सुरक्षित हो
| उन्होंने ही मुझे बताया कि अभी मैं अपने घर से बहुत दूर निकल आया हूँ | यह पड़ोस का
खगड़िया जिला है | उनके कहने पर मैंने वहीँ स्नान किया और भगवान की आरती में भी हिस्सा
लिया | पर मेरा मन कूदक कर घर पहुँच जाने को कर रहा था | मैंने जल्द ही पुजारी जी से
चलने की आज्ञा मांगी पुजारी जी ने मुझे जाने का रास्ता बता दिया था | मुझे चार कोस
पैदल चलना था तब जाकर वहाँ से बस मिलती | मैंने पुजारी जी से विदा ली और पैदल ही निकल
पड़ा | बस भी जल्दी ही मिल गयी | घर पहुँचते- पहुँचते रात हो गयी | माय मुझे ऐसा देख
कर घबरा गयी | मैंने उनको सब बात बताई और यह भी कहा कि अब मैं ठीक हूँ | माय ने मेरे
सामने महेसरा के कुल खानदान को उकट कर रख दिया | माय ने यह भी बताया कि छोटका आज ही
तुमलोगों को खोजने ददनी गया है | मैं इतना थक गया था कि कुछ भी सोचा ना जा रहा था | मैं तुरन्त जाकर
दुआर पर सो गया | बाऊ देश दुनिया से बेखबर मचान पर सोये हुए थे | सुबह-सुबह डरते हुए
आँख खोली | एक बुरा सपना चल रहा था नींद में, जिसमें कुछ लोग मुझे पीट रहे थे और उन्होंने
मेरे घर में आग भी लगा दी | जब उन्होंने मेरे किताबों को भी आग में फेंकने की कोशिश
की तो मैं जोर जोर से चिल्लाने लगा | इतने में मेरी नींद खुल गयी | मैं अपने आपको जकड़ा
हुआ महसूस कर रहा था | गाँव में कहते हैं कि अगर अकेले में धामन सांप किसी स्त्री को
देखता है तो उसको अपने रस्सी जैसे शरीर से लपेट कर अधमरा कर देता है और फिर उसका दूध
पी जाता है | अगर ऐसा होता होगा तो उस मजबूर स्त्री से कम मजबूर नहीं था मैं | फर्क
इतना था कि अब मैं बच गया था | मैंने अपने को झकझोरा, जगाया | उस हादसे की धमक अब तक
मेरे ऊपर थी | सपने भी गलत नहीं आते | डरा आदमी का सपना भी डरावना ही होता है | मैंने
अपने धोरखे पर नजर डाली, जहाँ अरिहंत प्रकाशन के बैंक का गाइड चमक रहा था | मैंने मन
ही मन खुद को भरोसा दिलाया कि सब कुछ ठीक है | सुबह उठ कर सबसे पहले किये जाने वाले
कुछ कामों को मैंने जल्दी निपटाया | माय तो बहुत पहले ही उठ गयी थी, मानों मेरे ही उठने का इंतजार कर रही थी
| बाऊ मचान पर बैठ कर सुतरी काट रहे थे | मैंने माय को महेसरा का सारा खेला बताया
| माय टुकुर-टुकुर मेरा मुंह देखती रही और चुपचाप सुनती रही | मानो मन ही मन सोच रही
हो कि हो ही जाता तो अच्छा होता | अपने मन से तो तुम बियाह करने से रहे | ऐसे ही सही
कम से कम हमको एगो पुतोह तो मिल जाती, पर शायद ये सोच कर उन्होंने नहीं कहा कि कहीं
मुझे बुरा ना लग जाये | माय जानती थी कि मैं अभी अपने पढाई पर ध्यान देना चाहता था,
शादी-बियाह कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं थी | मैं भी चौकी पर से लात झुलाता रहा और
चुप रहा | माय के कुछ ना बोलने से मुझे शक हो रहा था कि कहीं महेसरा ने माय को भी तो
पहले से नहीं पटा लिया है | इस चुप्पी को तोड़ा सिंह जी ने, उनके आने का मतलब है कि
कोई फ़ोन या सन्देश आया है | हमारे गांव में सिर्फ सिंह जी के यहाँ ही फोन है इसलिए
पूरे गाँव का फोन उनके यहाँ ही आता है | उन्होंने बताया कि ददनी से महेसरा का फोन था
कह रहा था कि .....
‘छोटका का बियाह उसकी साली से
कर दिया है| .....
तुमको बुलाया है, जाके अपना फरिया लो | ...इ कोनों उमर
है बियाह करने का ..
तुम तो पढ़े लिखे हो कुछ करो, अपना पढ़ रहे हो और भाय का
बियाह कर रहे हो ....|
मैं क्या जबाब
देता ? जहाँ से मैं भाग कर आया वह वहीँ जाकर
फंस गया | सिंह जी चले गये | मैंने माय से पूछा कि उसको वहां क्यों जाने दिया तो उन्होंने
कहा कि ‘जब तुम जाने के अगले दिन नहीं लोटे तो हम लोग चिंतित थे |’ छोटका ने ही बताया कि भैया
महेसर के साथ नाच देखने गये हैं | चिंता लगी थी इसलिए मदना से सायकिल मांग के छोटका
को ददनी भेजे | हमको क्या पता था कि ऐसा हो जायेगा | मैंने माय से पूछा कि.. क्या किया जाय ?
माय की वही पुरानी दुनियादारी | ‘बेटा ने सिंदूर दे दिया तो उ
अब हमरी पुतोह है’ आदि आदि | बाऊ को चिल्लाकर बताने में ही दिक्कत है |
गलती से पहला वाक्य सुन भी लिया तो अगला कैसे सुनाया जाय इसकी दिक्कत | उनको भी सेवा–टहल ही चाहिए | जो पुतोह सेवा
कर देगी उसी से खुश हो जायेंगे |
मैं घर में बड़ा भाई था पर था बेरोजगार | खेती छोटका के ही हिस्से था, कुल मिलाके
वही परिवार को चलाता था | गाँव के ही हाई स्कूल में उसका नाम था | इसी साल उसकी दसवीं की उसकी परीक्षा थी, सोचा कम से कम मैट्रिक
तो कर ले | उसके बाद जो होगा देखा जायेगा | पर अब तो सब कुछ पर पानी फिर गया था | मैं
तो इस मूड में था कि केस कर दिया जाय | शादी जबरदस्ती की गयी है | जिससे बड़े भाई की
शादी होने वाली थी वो ना हो सका तो छोटे भाई से कर दिया | मैं कुछ समय तक लड़ता रहा
पर किससे इसका पता नहीं | अब तक आस पड़ोस के लोग भी जमा हो गये थे | सब मुझे ही समझा
रहे थे कि जो हो गया सो हो गया | भगवान का लिखा था | अब जाकर लड़का-लड़की विदा कराके
ले आओ, इसी में घर की इज्जत है | उस वक्त कोई मेरे पक्ष में नहीं था | मैंने माय की
तरफ आशा भरी नजर से देखा पर उनकी आँखों में भी अपने पूतोह की विदागरी का आदेश पहले
से छिपा बैठा था | मैंने अलगनी से अपना शर्ट उतारा और जीप भाड़ा करने पश्चिम टोला की
तरफ चल पड़ा |
[श्रीमंत जैनेन्द्र, जन्म – 8 दिसंबर 1990 | पटना पुस्तक मेला (2009) में लघु कथा के लिये प्रथम पुरस्कार | कई पत्रिकाओं
में लघु कथा प्रकाशित | कायदे से कहानी के लिये पहला प्रयास | जेएनयू से ‘खेल,समाज और हिन्दी कथा साहित्य’ विषय पर एम. फिल् | संपर्क
– रूम नं०–32, झेलम हॉस्टल, जेएनयू,
110067 | मोबाइल – 9250321601
वक्तव्य – आज के समय से असंतुष्ट होकर मेरे मन में एक बेहतर दुनिया
का स्वप्न आता रहता है और इसको मैं सीधे-सीधे समझाने में असफल हूँ | कहानी ही वह माध्यम
है जिसके द्वारा मैं अपनी बात कह पाता हूँ |]
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