जान गँवा कर भी अपनी,
जान पाई ना ये बात |
क़सूर भला क्या था मेरा ,
छीनी अस्मिता मेरी उस रात |
कुछ कहते देवी का स्वरुप,
बस कहते ही . .

जन्म से समाज के
इस दोहरे नियमो में पली |
तन-मन पर खोखले
रिवाजों की प्रताड़नाएं सही . .
सदियों से किया अस्तित्व का संघर्ष,
बस करती ही रही |

बहुत रोई थी मैं, गिड़गिड़ाई   थी . .
सब से लगाई थी मदद की गुहार |
पर शरीर क्या, मेरी आत्मा को भी,
उन ज़ालिम दरिंदों ने किया तार-तार |
ये सच नहीं कि मैं लड़ी नहीं . .
देखना चाहती थी पूरा संसार |
पूरे करना चाहती थी वो ख्व़ाब,
 जिन्हें संजोए था मेरा परिवार |
यूँ तो छूट गयी साँसों की डोर
पर लगा देश अब जागा है |
जीते-जी ना बदला जो क़ानून,
सबका उसे बदलने का इरादा है |

पर गलत थी मैं...
उस नाबालिग़ वहशी को,
कानून की छूट और पुरस्कार मिला |
न मिल पाया इन्साफ मुझे,
दामन में बस तिरस्कृत हार मिला |
खूब लौटाए सम्मान तुमने अपने,
अब जाकर कहाँ बैठे हो मौन?
मान गई आज “अंधा है क़ानून’’,
इन्साफ मांगने वाला 
अब बचा कौन ???

श्रेया वर्मा
मधेपुरा  
1 Response
  1. Ashish Says:

    nice poem, ham chahte hai ki ap isi tarah samaj ke logo me nayi chetna jagrit karte rahe
    hamari wishes apke sath hai


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