हर सरकार हमें यही कहती रही है,
“देश से गरीबी अब दूर हो रही है.”
मगर, गरीबी आज भी हमें,
दूर-दूर तक खदेड़ रही है.
    गबन-घोटाले सदैव होते रहे हैं,
    लम्बी तान हम मजे में सोते रहे हैं.
    “विदेश में जमा कालाधन अब आ रहा है”
    जुमला यह हमें खूब भा रहा है.
विश्वासी पड़ोसी को नजरअंदाज कर,
दागी को गले लगा रही है.
गर्व से सीना तानकर सरकार,
अपनी पीठ खुद थपथपा रही है.
    जनता सरकार से विशेष उम्मीदें पाल रही है,
    मगर, सरकार अपने आस्तीन में सांप डाल रही है
    कभी ‘अटल जी’ हज करने लाहौर चले गए थे
    पड़ोसी हनीमून के लिए कारगिल आ गए थे
ग़लतफ़हमी में जीने का मजा कुछ और है
जीने की यही कला आज चारों ओर है,
सच, याददाश्त हमारी ज्यादा कमजोर है,
तभी तो बेवफा को मनाने पर जोर है.
    सरकार की नाकामयाबी पर जब कभी
    विपक्षी करता है तलब जवाब
    उत्तर उम्मीदों से लबरेज मिलता है
    “होंगे हम एकदिन कामयाब”.


*पी० बिहारी ‘बेधड़क’
कटाक्ष कुटीर, महाराजगंज, मधेपुरा  


(कविता में लेखक की निजी भावना हो सकती है)
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