मैं बहुत महफूज़ था माँ
अपने पहले घराने में
जब मैंने कुछ नहीं देखा था
शायद कुछ दिखता भी नहीं होगा…..

इस चकाचौंध से दूर
उस गुमनामी में
जब तुम किसी से नहीं
कहती थी मेरे बारे में
लगी रहती थी मुझे सबसे छिपाने में..

बहुत महफ़ूज था माँ
जब मुझे एहसास नहीं था
भूख का,  बेचैनी का, मिलन का या
किसी अजीज़ से बिछड़ने का
आज दिल बहुत रोता है पर
आँखे कुछ न कहती हैं

नादिली से लगा देता हूँ
लबों को मुस्कुराने में
बहुत महफ़ूज था माँ

बहुत महफ़ूज था माँ
जब मेरा कोई नाम नहीं था
जब कोई मुझे जानता नहीं था
अब लोग जानते हैं, बुलाते हैं,
आवाज़ लगाते हैं


मैं डर जाता हूँ बदनामी से और
लग जाता हूँ अपना नाम बचाने में
बहुत महफ़ूज था मैं……


अब मुझे मालूम हुआ है कि
माँ बनते हुए तुम इतनी क्यों रोई थी
क्यों इतना छटपटा रही थी तुम
क्योंकि तुम्हें मालूम था
अब तुम्हारा लाल महफ़ूज नहीं रहा…..
और ये दुनिया पहले दिन से लग जाएगी
उसे सताने में…….

माँ…..
सुनो ना….
मुझसे अब और नहीं सहे जाते ये ग़म
इतने उलझन इतने पेंचोखम
मैं दूर जाना चाहता हूँ इनसे,
महफ़ूज होना चाहता हूँ फिर से

मुझे ले चलो वापस वहीं
जहां से लाये थे
मुझे तुम इस जमाने में…..
बहुत महफ़ूज था माँ
अपने पहले घराने में.

 

सोमू आनंद, सहरसा
मो०- 95760 34767
9 Responses
  1. वहा भाई बहुत खूब सूरत



  2. Unknown Says:

    Awesome creation bro.. God bless you my besti.... go ahead my bro.


  3. Unknown Says:

    बहुत सुंदर कविता । बहुत बहुत बधाई ।


  4. Unknown Says:

    इनके बोलने के अंदाज के तो हम पहले से कायल है ।
    अब लेखनी के भी हो गए


  5. Unknown Says:

    इनके बेबाक बोलने के अंदाज के हम पहले से कायल थे अब
    लेखनी के भी हो गए


  6. Unknown Says:

    वाह..!उम्दा लेखनी सोमू भाई 👌👍


  7. Unknown Says:

    बहुत खूब सोमु जी


  8. एक अभिनव कविता पढ़ने का अनुभव प्राप्त कर रहा हूँ। आप ऐसे ही लिखते रहे।


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