दिल्ली रेलवे
स्टेशन से ट्रेन के पहिये खिसकने लगे थे. अब बस मुझे याद आ रही थी तो साहिल की.
उसके साथ बिताये हर लम्हें को मैंने इन सालों में अपने अन्दर कुछ इस तरह सहेज रखा
था,
जैसे रात अपने पेशानी पर सुबह को. आज से ठीक चार साल पहले लखनऊ शहर
ने हमें मिलाया था. तब हम दोनों एक दूसरे के लिए बिल्कुल अजनबी थे. और आज दोनों एक
दूसरे की जिंदगी बन गये हैं.
होस्टल की लम्बी
दीवारें और कायदे कानून मुझे हमेशा डराते थे. लेकिन मेरा डॉक्टर बनने और साहिल को
पाने का सपना उन बंदिशों से कहीं ऊँचा था. दिल्ली आने से पहले मैं अपने परिवार के
साथ लखनऊ में रहती थी. पिताजी सरकारी नौकरी में थे और माँ एक सीधी साधी घरेलू
महिला. मै भाई बहनों में अकेली थी, इसीलिए
शायद लाड़-प्यार ने मुझे जिद्दी बना दिया था. और मेरा डॉक्टर बनना उसी जिद्द का एक
हिस्सा था. बस मैंने ठान लिया था कि डॉक्टर बनना है तो बनना है. बेचारे पिताजी ने पाई पाई
करके जो पैसे मेरी शादी के लिए जोड़े थे. उसे मेरे मेडिकल कॉलेज में दाखिले करवाने
में झोंक दिया था. शायद उनको भी मेरी ही तरह मुझ पर और मेरे फैसले पर यकीन था.
मेरे डाक्टर बनने
की एक वजह ये भी थी, मैंने अपनी जिंदगी में
ऐसे कई लोग देखे जिनके पास पैसे न होने की वजह से सही समय पर सही इलाज न हो पाया
और उन्हें अपनी जिंदगी से हांथ तक धोना पड़ा. पैसे की कमी ने छोटी छोटी बीमारियों
से ही गरीब माँ के कोख उजाड़ दिए और वो यह सब देख कुदरत की पथरीली जमीं पर धस सी
जाती थी, जहाँ ऐसे डॉक्टर थे, जो चंद
रुपयों में जिंदगी का सौदा कर रहे थे “,हार जीत के इस बाजार
में खाली हांथो का हारना तय होता था” यह सब देख मै अन्दर तक
कांप गई थी. बस मैंने सोच लिया डॉक्टर बनकर
गरीबों के लिए कुछ करना है, और औरों को भी इसके लिए जागृत
करना है.
साहिल जिससे मैं
बहुत प्यार करती हूँ. उससे पहली बार मैं लखनऊ के एक अस्पताल में मिली. उस दिन
मैंने देखा था एक ऐसा शख्स को, जो खुद व्हील चेयर
पर होते हुए भी मरीज़ों की तामिरदारी कर रहा था. जिसकी उम्र यही कोई पच्चीस साल और
लम्बा गठीला सांवला सा चेहरा. अस्पताल के उस जनरल वार्ड में निस्वार्थ भाव से वो
कभी किसी अम्मा को अपने हाथों से मुँह में कौर दे रहा था तो कभी किसी की ज़ख्मों को
अपने हाथो से साफ़ कर रहा था और कभी किसी बूढ़े बाबा का पैर दबा रहा था. दुःख के घड़ी
में जब कोई ऐसे आपके साथ खड़ा हो, वो भी निस्वार्थ फिर तो वो
शख्स आपकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाता है.
उसे यूँ सहज और
सरल मददगार देख मुझे उसके बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ गई थी. मैंने पास खड़े
नर्स से उसके बारे में पूछा तो उसने कहा “मैडम यह
साहिल है, हाल ही में एक रोड एक्सीडेंट में इसके दोनों पैर
काम करना बंद कर दिए हैं मगर इसके व्हीलपावर को देख यहाँ के डॉक्टर अभी भी थोड़ी
उम्मीद है कि ये फिर से सामान्य हो जायेगा.”
उस नर्स की बातें
सुनकर मारे अफ़सोस के जुबान से बस इतना ही निकाल पाया था. “ओह ... गॉड”
साहिल हर दिन
मरीज़ों से मिलता था फिर एक दिन उसके हिम्मत और हौसले को सलाम करती हुई हूँ मैंने
अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया था. “आई एम्
सोनिया” उसने भी अपना हाथ आगे बढ़ा कर कहा “जी मैं साहिल, पर माफ कीजियेगा मैंने आपको पहचाना
नहीं. क्या आप कोई नई डाक्टर हैं? मैं
हंस पड़ी थी “नहीं अभी तो नहीं, माँ घुटनों के दर्द से बहुत परेशान रहती है इसलिए उनके साथ डॉक्टर के
चक्कर काट रही हूँ. खैर, क्या हम कल कॉफ़ी साथ पी सकते हैं?
“जी पर..”
दबे आवाज़ में साहिल ने कहा तो मैंने उसे रोकते हुए “कल शाम पाँच बजे मैं पास के कॉफ़ी डे में आपका इंतजार करुँगी”
और मैं इतना कहकर वहाँ से चली आई.
अगले दिन घड़ी की सूईयों
पर नज़र टिकाए मैं पाँच बजने का इंतजार कर रही थी. कल जल्दबाजी में मैं साहिल से
मोबाईल नम्बर भी लेना भूल गई थी. शाम में तय वक़्त पर कॉफ़ी डे पहुँच कर मैंने देखा,
साहिल अपनी व्हील चेयर के साथ पहले से वहाँ मौजूद है. वक़्त का जितना
पाबंद था उतना ही दिल से आत्मीय. मेरे बैठते ही पानी का ग्लास बढ़ाते हुए उसने कहा “क्यों मिलना चाहती थी आप मुझसे?”
“कुछ
चीजें जिंदगी में बेवजह हो तो लोगों को उसमें एतराज नहीं जताना चाहिए”
मैंने कह तो दिया था मगर सच तो ये था कि मैं उसके जज्बे को देखकर उसकी कायल हो गई
थी. इससे पहले कि वो और कुछ सवाल करता मैंने ही झट से कह दिया. “क्या आप मेरे दोस्त बनना चाहोगे?
हाँ, क्यों नहीं ? पर मेरे ख्याल से आपको एक बार फिर से
सोचना चाहिए सानिया जी, साहिल ने कहा.
उसके जवाब को
सुनकर मैं हैरत में थी. क्या मैं वही सानिया हूँ? जिसके
पीछे लड़कों की लाइन लगी रहती है. मैं आसानी से किसी को भाव न देने वाली लड़कियों
में से नहीं थी पर न जाने, कैसे? आज
मैं साहिल पर आकर ठहर गई थी.
फिर मैंने साहिल
की आँखों में आँखे डालकर मुस्कुराते हुए कहा, ”सानिया” अपने फैसले करना बखूबी जानती है.
मेरी और साहिल की
दोस्ती उस शाम के बाद, घंटों की मुलाकातों में
तब्दील होने लगी थी. हम घंटो एक दूसरे के साथ काफ़ी बिताने लगे थे. अस्पताल में
मरीजों की तामिरदारी में मैं भी साहिल की मदद करती. गुजरते वक़्त के साथ मैं और
साहिल अब एक दूसरे को जीवनसाथी के रूप में देखने लगे थे. हालांकि उसने मुझसे ऐसा
कभी कुछ नहीं कहा मगर उसकी चुप्पी मुझसे बहुत कुछ कह जाती थी.
मुझे बस अब चिंता
थी तो अपने पिताजी और माँ की. जो अपनी बेटी को एक ऐसे लड़के के साथ कतई नहीं ब्याह
सकते थे, जो अपने पैरों पर चल भी न सकता हो. ये और बात थी कि मेरे हिसाब से उसमे
ऐसी कोई कमीं न थी. जो कुछ हम एक जीवनसाथी से उम्मीद करते हैं. पर खुशी की बात ये
थी मै अपने माँ पापा को मनाने में कामयाब हो गई.
मेरा दिल्ली के
मेडिकल कालेज में दाखिला हो गया था, पर
साहिल को छोड़ जाने का बिलकुल मन नहीं कर रहा था. अपने मन का बोझ हल्का करते हुए
साहिल से मैंने अपने प्यार का इजहार किया तो उसने अपने आंसू छुपाते हुए मुस्कुरा
कर कहा मेरे साथ जिंदगी आसान न होगी. मैने उसका हाथ थामते हुए कहा तुम साथ दो तो
मुश्किल भी न होगी. साहिल ने मुझे गले से लगाते हुए कहा, 'आई लव यू टू'. फिर मैंने
दिल्ली की ओर रुख किया.
वक़्त के फिसलते
पहिये के तले आख़िरकार आज चार साल बाद मैं अपनी डॉक्टरी के सपने को साकार कर वापस
अपने शहर और साहिल के बीच जा रही हूँ....
जूली
अग्रवाल
कोलकाता
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